Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 315-317.

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उत्तमगुणगहणरओ उत्तमसाहूण विणयसंजुत्तो
साहम्मियअणुराई सो सद्दिट्ठी हवे परमो ।।३१५।।
उत्तमगुणग्रहणरतः उत्तमसाधूनां विनयसंयुक्तः
साधर्मिकानुरागी स सदृष्टिः भवेत् परमः ।।३१५।।
अर्थःवळी केवो छे ते सम्यग्द्रष्टि? उत्तम गुणो जे
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप आदिनुं ग्रहण करवामां तो अनुरागी
(भावनावंत) होय छे, ए गुणो धारक उत्तम साधुजनोना विनयथी युक्त
होय छे तथा पोता समान सम्यग्द्रष्टि साधर्मी जनोमां अनुरागी
वात्सल्यगुण सहित होय एवो ते उत्तम सम्यग्द्रष्टि होय छे. ए त्रणे
भाव न होय तो जाणवुं के तेनामां सम्यक्त्वनुं यथार्थपणुं नथी.
देहमिलियं पि जीवं णियणाणगुणेण मुणदि जो भिण्णं
जीवमिलियं पि देहं कंचुवसरिसं वियाणेइ ।।३१६।।
देहमिलितं अपि जीवं निजज्ञानगुणेन जानाति यः भिन्नम्
जीवमिलितं अपि देहं कञ्चुकसदृशं विजानाति ।।३१६।।
अर्थआ जीव, देहनी साथे मळी रह्यो छे तो पण, पोताना
ज्ञानगुण वडे पोताने देहथी जुदो ज जाणे छे. वळी देह जीवनी साथे
मळी रह्यो छे तो पण, तेने (देहने) ते कंचुक एटले कपडाना जामा
जेवो जाणे छे. जेम देहथी जामो जुदो छे तेम जीवथी देह जुदो छे,
एम ते जाणे छे.
णिज्जियदोसं देवं सव्वजिवाणं दयावरं धम्मं
वज्जियगंथं च गुरुं जो मण्णदि सो हु सद्दिट्ठी ।।३१७।।
निर्जितदोषं देवं सर्वजीवानां दयापरं धर्मम्
वर्जितग्रन्थं च गुरुं यः मन्यते सः स्फु टं सद्दृष्टिः ।।३१७।।
साधर्मीथी अधिक जस, परिजन उपर प्रेम;
तास न समकित मानीए, आगम नीति एम.
धर्मानुप्रेक्षा ]
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