अर्थः — जे जीव दोषोसहित देवोने तो देव माने छे, जीवहिंसा
सहितमां धर्म माने छे तथा परिग्रहासक्तने गुरु माने छे ते प्रगटपणे
मिथ्याद्रष्टि छे.
भावार्थः — भावमिथ्याद्रष्टि तो अद्रष्ट – छुपो मिथ्याद्रष्टि छे, परंतु
जे राग-द्वेष-मोह आदि अढार दोषोसहित कुदेवोने देव मानी वंदे – पूजे
छे, हिंसा – जीवघातादिमां धर्म माने छे तथा परिग्रहमां आसक्त एवा
वेषधारीने गुरु माने छे ते तो प्रगट – प्रसिद्ध मिथ्याद्रष्टि छे.
हवे कोई कहे छे के ‘‘व्यंतरादि देव लक्ष्मी आपे छे – उपकार करे
छे, तो तेओनुं पूजन – वंदन करवुं के नहि?’ तेनो उत्तर कहे छेः –
ण य को वि देदि लच्छी ण को वि जीवस्स कुणदि उवयारं ।
उवयारं अवयारं कम्मं पि सुहासुहं कुणदि ।।३१९।।
न च कोऽपि ददाति लक्ष्मीं न कः अपि जीवस्य करोति उपकारम् ।
उपकारं अपकारं कर्म अपि शुभाशुभं करोति ।।३१९।।
अर्थः — आ जीवने कोई व्यंतरादि देव लक्ष्मी आपतो नथी,
कोई अन्य उपकार पण करतो नथी, परंतु मात्र जीवनां पूर्वसंचित
शुभाशुभ कर्मो ज उपकार के अपकार करे छे.
भावार्थः — कोई एम माने छे के — ‘‘व्यंतरादि देव अमने
लक्ष्मी आपे छे – अमारो उपकार करे छे तेथी तेओनुं अमे पूजन – वंदन
करीए छीए,’’ पण ए ज मिथ्याबुद्धि छे. प्रथम तो आ काळमां ‘कोई
व्यंतरादि आपतो होय’ एवुं प्रत्यक्ष पोते देख्युं नथी – उपकार करतो
देखातो नथी. जो एम होय तो तेने पूजवावाळा ज दरिद्री-दुःखी – रोगी
शा माटे रहे? माटे ते व्यर्थ कल्पना करे छे. वळी परोक्षरूप पण एवो
नियमरूप संबंध देखातो नथी के जे पूजे तेमने अवश्य उपकारादि थाय
ज छे; मात्र आ मोही जीव निरर्थक ज विकल्प उपजावे छे. पूर्वसंचित
शुभाशुभकर्मो छे ते ज आ जीवने सुख, दुःख, धन, दरिद्रता, जीवन,
मरण करे छे.
धर्मानुप्रेक्षा ]
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