ते बधुंय भला प्रकारथी हुं इष्ट करुं छुं’. ए प्रमाणे पण ते श्रद्धावान
थाय छे.
भावार्थः — जे जिनेश्वरना वचनोनी श्रद्धा करे छे के ‘सर्वज्ञदेवे
कह्युं छे ते सर्व मने इष्ट छे’, एवी सामान्य श्रद्धाथी पण तेने
आज्ञासम्यक्त्वी कह्यो छे.
हवे त्रण गाथामां सम्यक्त्वनुं माहात्म्य कहे छेः —
रयणाण महारयणं सव्वजोयाणं उत्तमं जोयं ।
रिद्धीण महारिद्धी सम्मत्तं सव्वसिद्धियरं ।।३२५।।
रत्नानां महारत्नं सर्व्वयोगानां उत्तमः योगः ।
ऋद्धीनां महर्द्धिः सम्यक्त्वं सर्वसिद्धिकरम् ।।३२५।।
अर्थः — सर्व रत्नोमां पण महारत्न सम्यक्त्व छे, वस्तुनी सिद्धि
करवाना उपायरूप सर्व योग, मंत्र, ध्यान आदिमां (सम्यक्त्व) उत्तम
योग छे; कारण के – सम्यक्त्वथी मोक्ष सधाय छे. अणिमादि ॠद्धिओमां
पण (सम्यक्त्व) महान ॠद्धि छे. घणुं शुं कहीए? सर्व सिद्धि
करवावाळुं आ सम्यक्त्व ज छे.
सम्मत्तगुणपहाणो देविंदणरिंदवंदिओ होदि ।
चत्तवओ वि य पावदि सग्गसुहं उत्तमं विविहं ।।३२६।।
सम्यक्त्वगुणप्रधानः देवेन्द्रनरेन्द्रवन्दितः भवति ।
त्यक्तव्रतः अपि च प्राप्नोति स्वर्गसुखं उत्तमं विविधम् ।।३२६।।
अर्थः — सम्यक्त्वगुण सहित जे पुरुष प्रधान (श्रेष्ठ) छे ते
देवोना इन्द्रोथी, मनुष्योना इन्द्र चक्रवर्ती आदिथी वंदनीय थाय छे, अने
व्रतरहित होय तोपण नाना प्रकारना उत्तम स्वर्गादिकनां सुख पामे छे.
भावार्थः — जेनामां सम्यग्दर्शन गुण छे ते प्रधानपुरुष छे. ते
इन्द्रादि देवोथी पूज्य थाय छे. सम्यक्त्वसहित (जीव) देवनुं ज आयु
बांधे छे, तेथी व्रतरहितने पण स्वर्गगतिमां जवुं मुख्य कह्युं छे. वळी
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