Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 327-328.

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सम्यक्त्वगुणप्रधाननो आवो पण अर्थ थाय छे केपच्चीस मळदोष
रहित होय, पोताना निःशंकितादि अने संवेगादि गुणो सहित होय
एवा सम्यक्त्वना गुणोथी जे प्रधानपुरुष होय ते देवेन्द्रादि द्वारा
पूजनीय थाय छे
स्वर्गने प्राप्त थाय छे.
सम्माइट्ठी जीवो दुग्गदिहेदुं ण बंधदे कम्मं
जं बहुभवेसु बद्धं दुक्कम्मं तं पि णासेदि ।।३२७।।
सम्यग्दृष्टिर्जीवः दुर्गतिहेतुं न बध्नाति कर्म
यत् बहुभवेषु बद्धं दुष्कर्म तत् अपि नाशयति ।।३२७।।
अर्थःसम्यग्द्रष्टिजीव दुर्गतिना कारणरूप अशुभकर्मोने बांधतो
नथी, परंतु पूर्वे घणा भवोमां बांधेलां पापकर्मोनो पण नाश करे छे.
भावार्थःसम्यग्द्रष्टि मरण करीने प्रथम नरक विनानां बाकीनां
नरकोमां जतो नथी, ज्योतिष, व्यंतर अने भवनवासी देव थतो नथी,
स्त्रीपर्यायमां ऊपजतो नथी, पांच स्थावर, त्रण विकलेन्द्रिय (बे
त्रण
चार इन्द्रियधारी), असंज्ञी, निगोद, म्लेच्छ तथा कुभोगभूमिमां
ऊपजतो नथी; कारण के तेने अनंतानुबंधीकषायना उदयना अभावथी
दुर्गतिना कारणरूप कषायोना स्थानकरूप परिणामो थता नथी. अहीं
तात्पर्य ए जाणवुं के
त्रण काळ अने त्रण लोकमां सम्यग्दर्शन समान
कल्याणरूप अन्य कोई पदार्थ नथी अने मिथ्यादर्शन समान कोई शत्रु
नथी, एटला माटे श्री गुरुनो उपदेश छे के पोताना सर्वस्व उपाय
- उद्यम-यत्नथी पण एक मिथ्यात्वनो नाश करी सम्यक्त्व अंगीकार करवुं.
ए प्रमाणे गृहस्थ-धर्मना बार भेदोमां सम्यक्त्वसहितपणारूप प्रथम
भेदनुं निरूपण कर्युं.
हवे प्रतिमाना अगियार भेद छे तेनुं स्वरूप कहे छे. त्यां प्रथम
ज दार्शनिक श्रावकनुं स्वरूप कहे छेः
बहुतससमण्णिदं जं मज्जं मंसादि णिंदिदिं दव्वं
जो ण य सेवदि णियमा सो दंसणसावओ होदि ।।३२८।।
धर्मानुप्रेक्षा ]
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