बहुत्रससमन्वितं यत् मद्यं मांसादि निन्दितं द्रव्यम् ।
यः न च सेवते नियमात् सः दर्शनश्रावकः भवति ।।३२८।।
अर्थः — घणा त्रसजीवोना घातथी उत्पन्न तथा ए सहित
मदिराने तथा अतिनिंद्य एवां मांसादि पदार्थो छे तेने जे नियमथी
सेवतो नथी – भक्षण करतो नथी ते दार्शनिक श्रावक छे.
भावार्थः — मदिरा – मांस तथा आदि शब्दथी मधु अने पांच
उदंबरफळ के जे त्रसजीवोना घात सहित छे ते वस्तुओने पण जे
दार्शनिक श्रावक छे ते भक्षण करतो नथी. मद्य तो मनने मूर्च्छित करे
छे – धर्मने भुलावे छे. मांस त्रसघात विना थतुं ज नथी. मधुनी उत्पत्ति
प्रसिद्ध त्रसघातनुं स्थान ज छे. पीपळ – वड – पीलु आदि फळोमां
त्रसजीवो ऊडता प्रत्यक्ष जोवामां आवे छे, अन्य ग्रंथोमां पण कह्युं छे
के तेमनो त्याग ए श्रावकना आठ मूळगुणो छे. वळी एमने
त्रसहिंसानां उपलक्षण कह्या छे. एटला माटे जे वस्तुओमां त्रसहिंसा
घणी होय ते, श्रावकने अभक्ष्य छे – भक्षण योग्य नथी. वळी
अन्यायप्रवृत्तिना मूळरूप छे एवां सात व्यसननो त्याग पण अहीं कह्यो
छे. जुगार, मांस, मद्य, वेश्या, शिकार, चोरी अने परस्त्री ए सात
व्यसन छे, ‘व्यसन’ नाम आपदा वा कष्टनुं छे. एनुं सेवन करनारने
आपदा आवे छे, राजा वा पंचोना दंडने योग्य थाय छे तथा एनुं
सेवन पण आपदा वा कष्टरूप छे. तेथी श्रावक एवां अन्यायरूप कार्यो
करतो नथी. अहीं ‘दर्शन’ नाम सम्यक्त्वनुं छे तथा जे वडे ‘धर्मनी मूर्ति
छे’ एम सर्वना जोवामां आवे तेनुं नाम पण दर्शन छे. जे सम्यग्द्रष्टि
होय
– जिनमतने सेवतो होय अने अभक्षभक्षण – अन्याय अंगीकार करे
तो सम्यक्त्वने मलिन करे तथा जिनमतने लजावे; माटे एने नियमथी
छोडतां ज दर्शनप्रतिमाधारी श्रावक थाय छे.
दिढचित्तो जो कुव्वदि एवं पि वयं णियाणपरिहीणो ।
वेरग्गभावियमणो सो वि य दंसणगुणो होदि ।।३२९।।
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[ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा