Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 330.

< Previous Page   Next Page >


Page 181 of 297
PDF/HTML Page 205 of 321

 

background image
दृढचित्तः यः करोति एवं अपि व्रतं निदानपरिहीनः
वैराग्यभावितमनाः सः अपि च दर्शनगुणः भवति ।।३२९।।
अर्थःनिदान अर्थात् आलोकपरलोकना भोगनी वांच्छा
रहित बनी उपर प्रमाणे (व्रतमां) द्रढचित्त थयो थको वैराग्यथी भावित
(आर्द्र
कोमळ) थयुं छे चित्त जेनुं एवो थयो थको जे सम्यग्द्रष्टिपुरुष
व्रत करे छे तेने दार्शनिकश्रावक कहे छे.
भावार्थःप्रथमनी गाथामां श्रावक कह्या तेनां आ त्रण विशेष
विशेषण जाणवां. प्रथम तो द्रढचित्त होय अर्थात् परिषहादि कष्ट
आववा छतां पण व्रतनी प्रतिज्ञाथी डगे नहि, बीजुं निदानरहित होय
अर्थात् आ लोकसंबंधी यश
सुखसंपत्ति वा परलोकसंबंधी शुभगति
आदिनी वांच्छा रहित होय तथा त्रीजुं वैराग्यभावनाथी जेनुं चित्त आर्द्र
अर्थात् सिंचायेलुं होय. अभक्ष अने अन्यायने अत्यन्त अनर्थरूप जाणी
त्याग करे छे पण एम जाणीने नहि के ‘शास्त्रमां तेने त्यागवा योग्य
कह्यां छे माटे त्यागवां’. पण परिणाममां तो राग मट्यो नथी. (त्यां
शुं त्याग्युं?) त्यागना अनेक आशय होय छे. आ दार्शनिकश्रावकने तो
अन्य कोई आशय नथी, मात्र तीव्र कषायना निमित्तरूप महापाप जाणी
त्यागे छे अने एने त्यागवाथी ज आगळनी (व्रतादि) प्रतिमाओना
उपदेशने लायक थाय छे. निःशल्यने व्रती कह्यो छे तेथी शल्यरहित
त्याग होय छे. ए प्रमाणे दर्शनप्रतिमाधारी श्रावकनुं स्वरूप कह्युं.
हवे बीजी व्रतप्रतिमानुं स्वरूप कहे छेः
पंचाणुव्वयधारी गुणवयसिक्खावएहिं संजुत्तो
दिढचित्तो समजुत्तो णाणी वयसावओ होदि ।।३३०।।
पञ्चाणुव्रतधारी गुणव्रतशिक्षाव्रतैः संयुक्तः
दृढचित्तः शमयुक्तः ज्ञानी व्रतश्रावकः भवति ।।३३०।।
अर्थःजे पांच अणुव्रतनो धारक होय, त्रण गुणव्रत तथा चार
शिक्षाव्रत सहित होय, द्रढचित्तवान होय, शमभावथी युक्त होय तथा
धर्मानुप्रेक्षा ]
[ १८१