Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 351.

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जो परिहरेइ संतं तस्स वयं थुव्वदे सुरिंदेहिं
जो मणलड्डु व भक्खदि तस्स वयं अप्पसिद्धियरं ।।३५१।।
यः परिहरति संतं तस्य व्रतं स्तूयते सुरेन्द्रैः
यः मनोमोदकवत् भक्षयति तस्य व्रतं अल्पसिद्धिकरम् ।।३५१।।
अर्थःजे पुरुष छती (प्राप्तमोजूद) वस्तुनो त्याग करे छे
तेना व्रतने देवोना इन्द्रो पण अभिनंदे छेप्रशंसे छे, तथा अप्राप्त
वस्तुनो त्याग तो एवो छे के जेम लाडु तो होय नहि अने मनमां
संकल्पमात्र लाडुनी कल्पना करी लाडु खाय तेवो छे. अहीं अणछती
वस्तु संकल्पमात्र छोडवी ए व्रत तो छे, परंतु अल्प सिद्धिदाता छे
अर्थात् तेनुं फळ अल्प छे.
प्रश्नःभोगोपभोगपरिमाणने अहीं त्रीजा गुणव्रतमां गण्युं
पण तत्त्वार्थसूत्रमां त्रीजुं गुणव्रत, तो देशव्रत कह्युं छे अने
भोगोपभोगपरिमाणव्रतने त्रीजा शिक्षाव्रतमां गण्युं छे तेनुं शुं कारण?
तेनुं समाधानः
ए आचार्योनी विवक्षानुं विचित्रपणुं छे. स्वामी समंतभद्राचार्ये
रत्नकरंडश्रावकाचारमां पण अहीं कह्युं छे तेम ज कह्युं छेएमां विरोध
नथी. अहीं तो अणुव्रतना उपकारकनी अपेक्षा लीधी छे अने त्यां
(तत्त्वार्थसूत्रमां) सचित्तादि भोग छोडवानी अपेक्षा
मुनिव्रतनी शिक्षा
आपवानी अपेक्षा लीधी छे एटले एमां कांई विरोध नथी, ए प्रमाणे
गुणव्रतनुं व्याख्यान कर्युं.
*
दिग्व्रतमनर्थदण्डव्रतं च भोगोपभोगपरिमाणम्;
अनुबृंहणाद्गुणानामाख्यान्ति गुणव्रतान्यार्याः
।।६७।।
दिग्व्रत, अनर्थदंडव्रत, भोगोपभोगपरिमाणव्रत ए त्रण व्रतो अणुव्रतोने
वधारवाना हेतुरूप होवाथी तेने गुणव्रत कहे छे (रत्नकरंडश्रावकाचार)
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[ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा