Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 369-370.

< Previous Page   Next Page >


Page 203 of 297
PDF/HTML Page 227 of 321

 

background image
हवे अंत संल्लेखना संक्षेपमां कहे छेः
वारसवएहिं जुत्तो जो संलेहण करेदि उवसंतो
सो सुरसोक्खं पाविय कमेण सोक्खं परं लहदि ।।३६९।।
द्वादशव्रतैः युक्तः यः सल्लेखनां करोति उपशान्तः
सः सुरसौख्यं प्राप्य क्रमेण सौख्यं परं लभते ।।३६९।।
अर्थःजे श्रावक, बार व्रतो सहित अंत समये उपशमभावोथी
युक्त थई संलेखना करे छे ते स्वर्गनां सुख पामी अनुक्रमथी उत्कृष्ट
सुख जे मोक्षसुख तेने प्राप्त थाय छे.
भावार्थःकषायो अने कायानी क्षीणता करवी तेने संलेखना
कहे छे. त्यां श्रावक, बार व्रतोना पालन सहित पाछळथी मरण समय
जाणतां प्रथम सावधान थई, सर्व वस्तु प्रत्येनुं ममत्व छोडी कषायोने
क्षीण करी उपशमभावरूप मंदकषायी थाय तथा कायाने अनुक्रमथी
अनशन
ऊणोदरनीरसादि तपोथी क्षीण करे. प्रथम ए प्रमाणे कायाने
क्षीण करे तो शरीरमां मळमूत्रना निमित्तथी जे रोग थाय छे ते न
थाय, अंतसमयमां असावधानता न थाय. ए प्रमाणे संलेखना करे.
अंतसमये सावधान बनी पोताना स्वरूपमां वा अरहंत
सिद्धपरमेष्ठिना
स्वरूपचिंत्वनमां लीन थई व्रतरूपसंवररूप परिणाम सहित बन्यो थको
पर्यायने छोडे, तो ते स्वर्गसुखने प्राप्त थाय छे अने त्यां पण आ ज
वांच्छा रहे छे के ‘मनुष्य थई व्रत पालन करुं’. ए प्रमाणे अनुक्रमथी
मोक्षसुखनी प्राप्ति थाय छे.
एक्कं पि वयं विमलं सद्दिट्ठी जइ कुणेदि दिढचित्तो
तो विविहरिद्धिजुत्तं इंदत्तं पावए णियमा ।।३७०।।
एकं अपि व्रतं विमलं सद्दृष्टिः यदि करोति दृढचित्तः
तत् विविधर्द्धियुक्तं इन्द्रत्व प्राप्नोति नियमात् ।।३७०।।
अर्थःसम्यग्द्रष्टिजीव द्रढचित्त बनी एक पण व्रत अतिचार
धर्मानुप्रेक्षा ]
[ २०३