Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 389-390.

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भावार्थःआहारना अर्थे गृहस्थकार्यना आरंभादिकनी पण
अनुमोदना न करे, उदासीन थई घरमां पण रहे वा बाह्य चैत्यालय
मठ-मंडपमां पण वसे, भोजन माटे पोताने घरे वा अन्य श्रावक
बोलावे तो त्यां भोजन करी आवे. वळी एम पण न कहे के ‘अमारा
माटे फलाणी वस्तु तैयार करजो’. गृहस्थ जे कांई जमाडे ते ज जमी
आवे. ते दशमी प्रतिमाधारी श्रावक होय छे.
जो पुण चिंतदि कज्जं सुहासुहं रायदोससंजुत्तो
उवओगेण विहीणं स कुणदि पावं विणा कज्जं ।।३८९।।
यः पुनः चिन्तयति कार्यं शुभाशुभं रागद्वेषसंयुतः
उपयोगेन विहीनः सः करोति पापं विना कार्यम् ।।३८९।।
अर्थःजे प्रयोजन विना राग-द्वेष सहित बनी शुभ
-अशुभकार्योनुं चिंतवन करे छे ते पुरुष विना कार्य पाप उपजावे छे.
भावार्थःपोते तो त्यागी बन्यो छे छतां विना प्रयोजन
पुत्रजन्मप्राप्तिविवाहादिक शुभकार्यो तथा कोईने पीडा आपवी, मारवो,
बांधवो इत्यादिक अशुभकार्योएम शुभाशुभ कार्योनुं चिंतवन करी जे
राग-द्वेष परिणाम वडे निरर्थक पाप उपजावे छे तेने दशमी प्रतिमा केम
होय? तेने तो एवी बुद्धि ज रहे के ‘जे प्रकारनुं भवितव्य छे तेम
ज थशे, जेम आहारादि मळवां हशे तेम ज मळी रहेशे’. एवा
परिणाम रहे तो अनुमतित्यागनुं पालन थाय छे. ए प्रमाणे बार
भेदमां अगियारमो भेद कह्यो.
हवे उद्दिष्टविरति नामनी अगियारमी प्रतिमानुं स्वरूप कहे छेः
जो णवकोडिविसुद्धं भिक्खायरणेण भुंजदे भोज्जं
जायणरहियं जोग्गं उद्दिट्ठाहारविरदो सो ।।३९०।।
यः नवकोटिविशुद्धं भिक्षाचरणेन भुंक्ते भोज्यम्
याचनरहितं योग्यं उद्दिष्टाहारविरतः सः ।।३९०।।
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[ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा