Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration).

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त्यारे बीजा भेदवाळो केशोनो लोच करे. प्रति-लेखन पाछळथी करे,
पोताना हाथमां ज भोजन करे तथा कोपिन धारण करे इत्यादिक. तेनी
विधि अन्य ग्रंथोथी समजवी. ए प्रमाणे प्रतिमा तो अगियार थई तथा
बार भेद कह्या हता तेमां आ श्रावकनो बारमो भेद थयो.
हवे अहीं संस्कृत टीकाकारे अन्य ग्रंथानुसार श्रावकसंबंधी थोडुंक
कथन लख्युं छे, ते संक्षेपमां लखीए छीएः
छठ्ठी प्रतिमा सुधी तो जघन्य श्रावक कह्यो छे, सातमी, आठमी
अने नवमी प्रतिमाधारकने मध्यम श्रावक कह्यो छे, तथा दशमी
अगियारमी प्रतिमाधारकने उत्कृष्ट श्रावक कह्यो छे. वळी कह्युं छे के
समिति सहित प्रवर्ते तो अणुव्रत सफळ छे. पण समिति रहित प्रवर्ते
तो व्रतपालन करतो होवा छतां अव्रती छे.
प्रश्नःगृहस्थने असि, मसि, कृषि, वाणिज्यना आरंभमां
त्रसस्थावर जीवोनी हिंसा थाय छे, तो त्रसहिंसानो त्याग तेनाथी केवी
रीते बने? तेनुं समाधानः
पक्ष, चर्या अने साधकता एम श्रावकनी त्रण प्रवृत्ति कही छे.
त्यां पक्षनो धारक छे तेने पाक्षिक श्रावक कहे छे. चर्याना धारकने
नैष्ठिक श्रावक कहे छे, तथा साधकताना धारकने साधक श्रावक कहे छे.
त्यां पक्ष तो आ प्रमाणे छे के
जैनमार्गमां त्रसहिंसाना त्यागीने
श्रावक कह्यो छे तेथी हुं मारा प्रयोजनने माटे वा परना प्रयोजनने
माटे त्रसजीवोने हणुं नहि, धर्मने माटे, देवताने माटे, मंत्रसाधनने
माटे, औषधने माटे, आहारने माटे तथा अन्य भोगोने माटे हणुं
नहि एवो पक्ष जेने होय ते पाक्षिक छे. असि
मसिकृषि अने
वाणिज्यादि कार्योमां तेनाथी हिंसा तो थाय छे तोपण मारवानो
अभिप्राय नथी, मात्र पोताना कार्यनो अभिप्राय छे, त्यां जीवघात
थाय छे तेनी आत्मनिंदा करे छे. ए प्रमाणे त्रसहिंसा नहि करवाना
पक्षमात्रथी तेने पाक्षिक कहीए छीए. अहीं अप्रत्याख्यानावरणकषायना
मंदउदयना परिणाम छे माटे ते अव्रती ज छे, व्रतपालननी इच्छा छे
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[ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा