Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 392-393.

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हवे मुनिधर्मनुं व्याख्यान करे छेः
जो रयणत्तयजुत्तो खमादिभावेहिं परिणदो णिच्चं
सव्वत्थ वि मज्झत्थो सो साहू भण्णदे धम्मो ।।३९२।।
यः रत्नत्रययुक्तः क्षमादिभावैः परिणतः नित्यम्
सर्वत्र अपि मध्यस्थः सः साधुः भण्यते धर्मः ।।३९२।।
अर्थःजे पुरुष रत्नत्रय अर्थात् निश्चयव्यवहाररूप
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रथी युक्त होय, क्षमादि भाव अर्थात् उत्तम
क्षमाथी मांडी दस प्रकारना धर्मोथी नित्यनिरंतर परिणत होय, सुख
दुःख, तृणकंचन, लाभअलाभ, शत्रुमित्र, निन्दाप्रसंशा अने
जीवनमरण आदिमां मध्यस्थ एटले के समभावरूप वर्ते अने राग-
द्वेषथी रहित होय तेने साधु कहे छे, तेने ज धर्म कहे छे; कारण के
जेमां धर्म छे ते ज धर्मनी मूर्ति छे, ते ज धर्म छे.
भावार्थःअहीं रत्नत्रय सहित कहेवामां तेर प्रकारनुं चारित्र
छे ते महाव्रत आदि मुनिनो धर्म छे, तेनुं वर्णन करवुं जोईए; परन्तु
अहीं दस प्रकारना विशेष धर्मोनुं वर्णन छे. तेमां महाव्रत आदिनुं
वर्णन पण गर्भित छे एम समजवुं.
हवे दस प्रकारना धर्मोनुं वर्णन करे छेः
सो चेव दहपयारो खमादिभावेहिं सुक्खसारेहिं
ते पुण भणिज्जमाणा मुणियव्वा परमभत्तीए ।।३९३।।
सः च एव दशप्रकारः क्षमादिभावैः सौख्यसारैः
ते पुनः भण्यमानाः ज्ञातव्याः परमभक्त्या ।।३९३।।
अर्थःते मुनिधर्म क्षमादि भावोथी दस प्रकारनो छे. केवो छे
ते? सौख्यसार एटलो तेनाथी सुख थाय छे अथवा तेनामां सुख छे
अथवा सुखथी साररूप छे
एवो छे. हवे कहेवामां आवनार दस
प्रकारना धर्मो भक्तिथी, उत्तम धर्मानुरागथी जाणवा योग्य छे.
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[ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा