Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 396-397.

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मनःपर्ययज्ञानी छे, केवळज्ञानी तो सर्वोत्कृष्ट ज्ञानी छे, हुं कोण छुं?
अल्पज्ञ छुं. वळी उत्तमतप करे तोपण तेनो मद न करे, पोते सर्व
जाति, कुळ, बळ, विद्या, ऐश्वर्य अने तप आदि वडे सर्वथी मोटो छे
तोपण परकृत अपमानने पण सहन करे छे, परंतु त्यां गर्व करी कषाय
उपजावतो नथी. त्यां उत्तम मार्दवधर्म होय छे.
हवे उत्तम आर्जवधर्म कहे छेः
जो चिंतेइ ण वंकं कुणदि ण वंकं ण जंपए वंकं
ण य गोवदि णियदोसं अज्जवधम्मो हवे तस्स ।।३९६।।
यः चिन्तयति न वक्रं करोति न वक्रं न जल्पते वक्रम्
न च गोपायति निजदोषं आर्जवधर्मः भवेत् तस्य ।।३९६।।
अर्थःजे मुनि मनमां वक्रता न चिंतवे, कायाथी वक्रता न करे,
वचनथी वक्रता न बोले तथा पोताना दोषोने गोपवे नहिछुपावे नहि
ते मुनिने उत्तम आर्जवधर्म होय छे.
भावार्थःमन-वचन-कायामां सरळता होय अर्थात् जे मनमां
विचारे, ते ज वचनथी कहे अने ते ज कायाथी करे, पण बीजाने
भुलवणीमां नाखवा-ठगवा अर्थे विचार तो कांई करवो अने कहेवुं बीजुं
तथा करवुं वळी कांई बीजुं, त्यां मायाकषाय प्रबळ होय छे. एम न
करे पण निष्कपट बनी प्रवर्ते, पोतानो दोष छुपावे नहि पण जेवो होय
तेवो बाळकनी माफक गुरुनी पासे कहे त्यां उत्तम आर्जवधर्म होय छे.
हवे उत्तम शौचधर्म कहे छेेः
समसंतोसजलेण य जो धोवदि तिह्णलोहमलपुंजं
भोयणगिद्धिविहीणो तस्स सउच्चं हवे विमलं ।।३९७।।
समसन्तोषजलेन च यः धोवति तृष्णालोभमलपुंजम्
भोजनगृद्धिविहीनः तस्य शौचं भवेत् विमलम् ।।३९७।।
अर्थःजे मुनि समभाव अर्थात् राग-द्वेषरहित परिणाम अने
धर्मानुप्रेक्षा ]
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