Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 398.

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संतोष अर्थात् संतुष्टभावरूप जळथी तृष्णा तथा लोभरूप मळसमूहने
धोवे छे, भोजननी गृद्धि अर्थात् अति चाहनाथी रहित छे ते मुनिनुं
चित्त निर्मळ छे, अने तेने उत्तम शौचधर्म होय छे.
भावार्थःतृणकंचनने समान जाणवुं ते समभाव छे तथा
संतोषसंतुष्टपणुंतृप्तभाव अर्थात् पोताना स्वरूपमां ज सुख मानवुं
एवा भावरूप जळथी भविष्यमां मळवानी चाहनारूप तृष्णा तथा प्राप्त
द्रव्यादिकमां अति लिप्तपणारूप लोभ, एना (ए बंनेना) त्यागमां अति
खेदरूप मळने धोवाथी मन पवित्र थाय छे. मुनिने अन्य त्याग तो होय
ज छे, परंतु आहारना ग्रहणमां पण तीव्र चाहना राखे नहि, लाभ
अलाभ, सरसनीरसमां समभाव राखे तो उत्तम शौचधर्म होय छे.
वळी जीवनलोभ, आरोग्य राखवानो लोभ, इन्द्रियो ताजी राखवानो
लोभ तथा उपभोगनो लोभ ए प्रमाणे लोभनी चार प्रकारथी प्रवृत्ति
छे, ते चारेने पोतासंबंधी तथा पोताना स्वजन
मित्रादि संबंधी एम
बंने माटे इच्छे त्यारे तेनी (लोभनी) आठ भेदरूप प्रवृत्ति थाय छे.
ज्यां आ प्रमाणे बधोय लोभ न होय त्यां उत्तम शौचधर्म होय छे.
हवे उत्तम सत्यधर्म कहे छेः
जिणवयणमेव भासदि तं पालेदुं असक्कमाणो वि
ववहारेण वि अलियं ण वददि जो सच्चवाई सो ।।३९८।।
जिनवचनं एव भाषते तत् पालयितुं अशक्यमानः अपि
व्यवहारेण अपि अलीकं न वदति यः सत्यवादी सः ।।३९८।।
अर्थःजे मुनि जिनसूत्रअनुकूळ ज वचन कहे, वळी तेमां
जे आचारादि कह्यां छे ते पालन करवामां पोते असमर्थ होय तोपण
अन्य प्रकारथी न कहे, व्यवहारथी पण अलीक एटले असत्य न कहे
ते मुनि सत्यवादी छे अने ते ज उत्तम सत्यधर्म होय छे.
भावार्थःजैनसिद्धान्तमां आचारादिकनुं जेवुं स्वरूप कह्युं होय
तेवुं ज कहे पण एम नहि के पोताथी न पालन करी शकाय, एटले
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[ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा