Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 399.

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स्थापी लीधी छे एटले ज्यां जेवुं जोईए ते ज अनुक्रमथी मोती परोवे.
७. जे देशमां जेवी भाषा होय ते कहेवी ते जनपदसत्य छे.
८. गाम
नगरादिनुं उपदेशक वचन ते देशसत्य छे. जेम चोतरफ
वाड होय तेने गाम कहे छे.
९. छद्मस्थना ज्ञानथी अगोचर अने संयमादिक पालन अर्थे जे
वचन बोलाय ते भावसत्य छे. जेम कोई वस्तुमां छद्मस्थना ज्ञानथी
अगोचर जीव होय तोपण पोतानी द्रष्टिमां जीव नहि देखवाथी
आगमअनुसार कहे के ‘आ प्रासुक छे’.
१०. आगमगोचर वस्तुने आगमनां वचनानुसार कहेवी ते
समयसत्य छे. जेम पल्यसागर इत्यादि कहेवा.
आ दस प्रकारनां सत्यनुं कथन गोम्मटसारमां पण छे. त्यां सात
नाम तो आमां छे ते ज छे तथा त्रण नाम-देश, संयोजना अने
समयनी जग्याए त्यां संभावना, व्यवहार अने उपमा एम छे अने
उदाहरण अन्य प्रकारथी छे. ए विवक्षानो भेद समजवो, तेमां विरोध
नथी.
ए प्रमाणे जिनसूत्रानुसार सत्यवचननी प्रवृत्ति करे तेने (उत्तम)
सत्यधर्म होय छे.
हवे उत्तम संयमधर्म कहे छेः
जो जीवरक्खणपरो गमणागमणादिसव्वकज्जेसु
तणछेदं पि ण इच्छदि संजमधम्मो हवे तस्स ।।३९९।।
जणवदसम्मदिठवणाणामे रूवे पडुच्चववहारे
संभावणे य भावे उवमाए दसविहं सच्चं ।।
(गो. जीव. गा. २२२)
अर्थ :—जनपदमां, संवृत्ति वा सम्मतिमां, स्थापनामां, नाममां, रूपमां,
प्रतीत्यमां, व्यवहारमां, संभावनामां, भावमां, उपमामांएवा दस स्थानोमां
दस प्रकारथी सत्य जाणवां. (आ दस सत्यनी विशेष व्याख्या माटे जुओ गो.
जी. गा. २२३
२२४नी टीका)
२२४ ]
[ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा