Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration).

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यः जीवरक्षणपरः गमनागमनादिसर्वकार्येषु
तृणच्छेदं अपि न इच्छति संयमधर्मः भवेत् तस्य ।।३९९।।
अर्थःजे मुनि, जीवोनी रक्षामां तत्पर वर्ततो थको,
गमनागमन आदि सर्व कार्योमां तृणनो छेदमात्र पण न इच्छे, न करे
ते मुनिने उत्तम संयमधर्म होय छे.
भावार्थःसंयम बे प्रकारनो कह्यो छेः इन्द्रिय मननुं वश
करवुं तथा छ कायना जीवोनी रक्षा करवी. मुनिने आहारविहारादि
करवामां गमन
आगमनादि काम करवुं पडे छे पण ते कार्यो करतां
एवा परिणाम रह्या करे के ‘हुं तृणमात्रनो पण छेद न करुं, मारा
निमित्ते कोईनुं अहित न थाओ’. एवा यत्नरूप प्रवर्ते छे, जीवदयामां
ज तत्पर रहे छे. अन्य ग्रंथोमां संयमनुं विशेष वर्णन कर्युं छे ते अहीं
टीकाकार संक्षेपमां कहे छेः
संयम बे प्रकारनो छेः एक उपेक्षासंयम तथा बीजो
अपहृतसंयम. त्यां जे स्वभावथी ज राग-द्वेषने छोडी गुप्तिधर्ममां
कायोत्सर्ग
ध्यानपूर्वक रहे तेने उपेक्षासंयम कहे छे. ‘उपेक्षा’ नाम
उदासीनता वा वीतरागतानुं छे. बीजा अपहृतसंयमना त्रण भेद छेः
उत्कृष्ट, मध्यम अने जघन्य. त्यां चालतां
बेसतां जो जीव देखाय तो
तेने टाळीने जाय पण जीवने सरकावे नहि ते उत्कृष्ट छे, कोमळ
मोरपींछीथी जीवने सरकावे ते मध्यम छे तथा अन्य तृणादिकथी सरकावे
ते जघन्य छे. अहीं अपहृतसंयमीने पांच समितिनो उपदेश छे. त्यां
आहार-विहार अर्थे गमन करे तो प्रासुकमार्ग जोई जुडाप्रमाण (चार
हाथ) भूमिने जोई मंद मंद अति यत्नाचारपूर्वक गमन करे ते
इर्यासमिति छे; धर्मोपदेशादि अर्थे वचन कहे तो हितरूप, मर्यादापूर्वक
अने संदेहरहित स्पष्ट अक्षररूप वचन कहे, अति प्रलापादि वचनना
दोषरहित बोले ते भाषासमिति छे; कायानी स्थिति अर्थे आहार करे,
ते पण मन-वचन-काय-कृत-कारित-अनुमोदना दोष जेमां न लागे एवो,
परनो आपेलो, छेंतालीस दोष, बत्रीस अंतराय अने चौद मळदोष
धर्मानुप्रेक्षा ]
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