हिंसारम्भः न शुभः देवनिमित्तं गुरूणां कार्येषु ।
हिंसा पापं इति मतं दयाप्रधानः यतः धर्मः ।।४०६।।
अर्थः — ‘हिंसा थाय ते पाप छे तथा जेमां दयाप्रधान छे ते
धर्म छे’ एम कह्युं छे माटे देवना अर्थे वा गुरुकार्यने अर्थे हिंसा
-आरंभ करवां ते शुभ नथी.
भावार्थः — अन्यमती हिंसामां धर्म स्थापन करे छे. मीमांसक
तो यज्ञ करे छे तेमां पशुओने होमी तेनुं शुभ फळ बतावे छे; देवी
– भैरवना उपासको बकरां वगेरे मारी देवी – भैरवने चढावे छे अने तेनुं
शुभ फळ माने छे; बौद्धमती हिंसा करी मांसादिकना आहारने शुभ
कहे छे तथा श्वेताम्बरोनां केटलांक सूत्रोमां एम कह्युं छे के – ‘देव-गुरु
-धर्मना माटे चक्रवर्तीनी सेनाने पीली नांखवी; जे साधु आ प्रमाणे नथी
करतो ते अनंतसंसारी थाय छे. वळी कोई ठेकाणे मद्य – मांसनो आहार
पण तेमां लख्यो छे. ए सर्वनो आ गाथाथी निषेध कर्यो छे एम
समजवुं, जे देव-गुरुना कार्य माटे पण हिंसानो आरंभ करे छे ते शुभ
नथी, धर्म तो दयाप्रधान ज छे.
वळी आ प्रमाणे पण समजवुं के पूजा, प्रतिष्ठा, चैत्यालयनुं
निर्मापन, संघ – यात्रा तथा वसतिकानुं निर्मापन आदि गृहस्थनां कार्यो
छे, तेने पण मुनि पोते न करे, न करावे, न अनुमोदे; कारण के ते
गृहस्थोनो धर्म छे. तेमनुं विधान सूत्रमां लख्युं होय तेम गृहस्थ करे.
गृहस्थ मुनिने आ संबंधी प्रश्न करे तो मुनि आम कहे के
‘जिनसिद्धान्तमां गृहस्थनो धर्म पूजा – प्रतिष्ठादि लख्यो छे तेम करो.’
आ प्रमाणे कहेवामां हिंसानो दोष तो गृहस्थने ज छे, मात्र ए
श्रद्धान — भक्तिधर्मनी प्रधानता तेमां जे थई, ए संबंधी जे पुण्य थयुं.
तेना सीरी (भागीदार) मुनि पण छे, परंतु हिंसा तो गृहस्थनी छे,
तेना सीरी (भागीदार) नथी. वळी गृहस्थ पण जो हिंसा करवानो
अभिप्राय करे तो ते अशुभ ज छे. पूजा – प्रतिष्ठा यत्नपूर्वक करे छे
ते कार्यमां गृहस्थने हिंसा थाय तो ते केम टळे? तेनुं समाधान आ
धर्मानुप्रेक्षा ]
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