
पुण्यना ज अर्थे एटले प्रयोजनथी अंगिकार न करवा.
अशुभआयु अने अशुभगोत्रने पापकर्म कहे छे. हवे अहीं आ
दशलक्षणधर्म पापने नाश करवावाळो तथा पुण्यने उपजाववावाळो कह्यो;
त्यां केवळ पुण्य उपजाववानो अभिप्राय राखी तेने न सेववो, कारण
के पुण्य पण बंध ज छे. अने आ धर्म तो पाप जे घातिकर्म छे तेने
नाश करवावाळो छे. तथा अघातिमां जे अशुभप्रकृति छे तेनो नाश करे
छे. पुण्यकर्म छे ते सांसारिक अभ्युदयने आपे छे. हवे तेनाथी
(दशलक्षणधर्मथी) व्यवहारअपेक्षाए तेनो पण (पुण्यनो पण) बंध थाय
छे तो ते स्वयमेव ज थाय छे, पण तेनी वांच्छा करवी ए तो संसारनी
ज वांच्छा करवा तुल्य छे अने ए तो निदान (चोथुं आर्त्तध्यान) थयुं,
मोक्षना जिज्ञासुने ते होय नहि. जेम खेडूत अनाज माटे खेती करे छे,
तेने घास तो स्वयमेव थाय छे, तेनी वांच्छा ते शा माटे करे? तेम
मोक्षना अर्थीने ए पुण्यबंधनी वांच्छा करवी योग्य नथी.