Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 411-412.

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पुण्यं अपि यः समिच्छति संसारः तेन ईहितः भवति
पुण्यं सद्गतिहेतुः पुण्यक्षयेण एव निर्वाणम् ।।४१०।।
अर्थःजे पुण्यने पण इच्छे छे ते पुरुषे संसार इच्छ्यो,
कारण के पुण्य छे ते सुगतिना बंधनुं कारण छे अने मोक्ष छे ते तो
पुण्यनो पण क्षय करी प्राप्त थाय छे.
भावार्थःपुण्यथी सुगति थाय छे एटले जेणे पुण्य वांच्छ्युं
तेणे संसार वांच्छ्यो, कारण के सुगति छे ते पण संसार ज छे; अने
मोक्ष तो पुण्यनो पण क्षय थतां थाय छे एटले मोक्षार्थीए पुण्यनी
वांच्छा करवी योग्य नथी.
जो अहिलसेदि पुण्णं सकसाओ विसयसोक्खतह्णाए
दूरे तस्स विसोही विसोहिमूलाणि पुण्णाणि ।।४११।।
यः अभिलषति पुण्यं सकषायः विषयसौख्यतृष्णया
दूरे तस्य विशुद्धिः विशुद्धिमूलानि पुण्यानि ।।४११।।
अर्थःजे कषाय सहित थतो थको विषयसुखनी तृष्णाथी
पुण्यनी अभिलाषा करे छे तेने मंदकषायना अभावथी विशुद्धता दूर वर्ते
छे. अने पुण्यकर्म छे ते तो विशुद्धता (मंदकषाय) छे मूळ
कारण जेनुं
एवुं छे.
भावार्थःविषयोनी तृष्णाथी जे पुण्यने इच्छे छे ए ज
तीव्रकषाय छे अने पुण्यबंध थाय छे ते तो मंदकषायरूप विशुद्धताथी
थाय छे, एटले जे पुण्यने इच्छे छे तेने आगामी पुण्यबंध पण थतो
नथी, निदानमात्र फळ थाय तो थाय.
पुण्णासए ण पुण्णं जदो णिरीहस्स पुण्णसंपत्ती
इय जाणिऊण जइणो पुण्णे वि म आयरं कुणह ।।४१२।।
पुण्याशया न पुण्यं यतः निरीहस्य पुण्यसम्प्राप्तिः
इति ज्ञात्वा यतिनः पुण्ये अपि मा आदरं कुरुध्वम् ।।४१२।।
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[ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा