अर्थः — कारण के पुण्यनी वांच्छाथी कांई पुण्यबंध थतो नथी,
परंतु वांच्छा रहित पुरुषने पुण्यबंध थाय छे एटला माटे पण अर्थात्
एम जाणीने पण हे यतीश्वर! तमे पुण्यमां पण वांच्छा – आदर न करो!
भावार्थः — अहीं मुनिजनोने उपदेश्या छे के — पुण्यनी
वांच्छाथी पुण्यबंध थतो नथी, पुण्यबंध तो आशा मटतां बंधाय छे.
माटे पुण्यनी आशा पण न करो, मात्र पोताना स्वरूपनी प्राप्तिनी
आशा करो.
पुण्णं बंधदि जीवो मंदक साएहि परिणदो संतो ।
तम्हा मंदकसाया हेऊ पुण्णस्स ण हि वंछा ।।४१३।।
पुण्यं बध्नाति जीवः मन्दकषायैः परिणतः सन् ।
तस्मात् मन्दकषायाः हेतुः पुण्यस्य न हि वांछा ।।४१३।।
अर्थः — मंदकषायरूप परिणमेलो जीव पुण्यने बांधे छे, माटे
पुण्यबंधनुं कारण मंदकषाय छे, पण वांच्छा पुण्यबंधनुं कारण नथी.
पुण्यबंध मंदकषायथी थाय छे अने तेनी (पुण्यबंधनी) वांच्छा छे ते तो
तीव्रकषाय छे माटे वांच्छा करवी नहि. निर्वांच्छक पुरुषने पुण्यबंध थाय
छे. लौकिकमां पण कहे छे के जे चाहना करे तेने कांई मळतुं नथी अने
चाहविनानाने घणुं मळे छे; माटे वांच्छानो तो निषेध ज छे.
प्रश्नः — अध्यात्मग्रंथोमां तो पुण्यनो निषेध घणो कर्यो छे अने
पुराणोमां पुण्यनो ज अधिकार छे; माटे अमे तो एम जाणीए छीए
के संसारमां पुण्य ज मोटी वस्तु छे, तेनाथी तो अहीं इन्द्रियोनां सुख
मळे छे. मनुष्यपर्याय, सारी संगति, भलुं शरीर अने मोक्षसाधनना
उपाय एनाथी मळे छे, त्यारे पापथी तो नरक-निगोदमां जाय, त्यां
मोक्षनुं साधन पण क्यांथी मळे? माटे एवां पुण्यनी वांच्छा केम न
करवी?
समाधानः — ए कह्युं ते तो साचुं छे, परंतु मात्र भोगना अर्थे
पुण्यनी वांच्छानो अत्यंत निषेध छे. कारण के भोगना अर्थे पुण्यनी
धर्मानुप्रेक्षा ]
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