Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 414.

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वांच्छा करे छे तेने प्रथम तो सातिशय पुण्यबंध थतो ज नथी, अने
तपश्चराणादि करी कांईक पुण्य बांधी भोग पामे अने त्यां अति
तृष्णापूर्वक भोगोने सेवे तो नरक
निगोद ज पामे, तथा बंध-मोक्षनुं
स्वरूप साधवा माटे पुण्य पामे तेनो तो निषेध छे नहि. पुण्यथी मोक्ष
साधवानी सामग्री मळे एवो उपाय राखे तो त्यां परंपराए मोक्षनी
ज वांच्छा थई
पुण्यनी वांच्छा न थई. जेम कोई पुरुष भोजन
करवानी वांच्छाथी रसोईनी सामग्री भेळी करे तेनी वांच्छा पहेली होय
तो तेने भोजननी ज वांच्छा कहेवाय, परंतु भोजननी वांच्छा विना
मात्र सामग्रीनी ज वांच्छा करे तो त्यां सामग्री मळवा छतां पण
प्रयासमात्र ज थयो पण कांई फळ तो न थयुं एम समजवुं. पुराणोमां
पुण्यनो अधिकार छे ते पण मोक्षना ज अर्थे छे, संसारनो तो त्यां
पण निषेध ज छे.
हवे दशलक्षणधर्म छे ते दयाप्रधान छे अने दया छे ते ज
सम्यक्त्वनुं मुख्य चिह्न छे, कारण के सम्यक्त्व छे ते जीव, अजीव,
आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ए तत्त्वार्थोनां ज्ञानपूर्वक
श्रद्धानस्वरूप छे, ए होय तो सर्व जीवोने ते पोता समान अवश्य
जाणे, तेओने दुःख थाय तो पोतानां दुःख माफक जाणे एटले तेओनी
करुणा अवश्य थाय.
वळी पोतानुं शुद्धस्वरूप जाणे त्यारे कषायोने अपराधरूप - दुःखरूप
जाणे अने तेमनाथी पोतानो घात जाणे त्यारे कषायभावना अभावने
पोतानी दया माने; ए प्रमाणे अहिंसाने धर्म जाणे तथा हिंसाने अधर्म
माने अने एवुं श्रद्धान, ते ज सम्यक्त्व छे. तेनां निःशंकितादि आठ
अंग छे, तेने जीवदया उपर ज लगावीने अहीं कहे छे. त्यां
प्रथम निःशंकितअंग कहे छेः
किं जीवदया धम्मो जण्णे हिंसा वि होदि किं धम्मो
इच्चेवमादिसंका तदकरणं जाण णिस्संका ।।४१४।।
२३८ ]
[ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा