
तपश्चराणादि करी कांईक पुण्य बांधी भोग पामे अने त्यां अति
तृष्णापूर्वक भोगोने सेवे तो नरक
साधवानी सामग्री मळे एवो उपाय राखे तो त्यां परंपराए मोक्षनी
ज वांच्छा थई
तो तेने भोजननी ज वांच्छा कहेवाय, परंतु भोजननी वांच्छा विना
मात्र सामग्रीनी ज वांच्छा करे तो त्यां सामग्री मळवा छतां पण
प्रयासमात्र ज थयो पण कांई फळ तो न थयुं एम समजवुं. पुराणोमां
पुण्यनो अधिकार छे ते पण मोक्षना ज अर्थे छे, संसारनो तो त्यां
पण निषेध ज छे.
आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ए तत्त्वार्थोनां ज्ञानपूर्वक
श्रद्धानस्वरूप छे, ए होय तो सर्व जीवोने ते पोता समान अवश्य
जाणे, तेओने दुःख थाय तो पोतानां दुःख माफक जाणे एटले तेओनी
करुणा अवश्य थाय.
पोतानी दया माने; ए प्रमाणे अहिंसाने धर्म जाणे तथा हिंसाने अधर्म
माने अने एवुं श्रद्धान, ते ज सम्यक्त्व छे. तेनां निःशंकितादि आठ
अंग छे, तेने जीवदया उपर ज लगावीने अहीं कहे छे. त्यां