Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 415-416.

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किं जीवदया धर्मः यज्ञे हिंसा अपि भवति किं धर्मः
इत्येवमादिशंका तदकरणं जानीहि निःशंका ।।४१४।।
अर्थःआम विचार करे केशुं जीवदया धर्म छे के यज्ञमां
पशुओनो वध करवारूप हिंसा छे ते धर्म छे? इत्यादि धर्ममां संशय
थाय ते शंका छे अने तेवी शंका न करवी ते निःशंकित (गुण) छे.
भावार्थःअहीं ‘आदि’ शब्दथी एम कह्युं छे केदिगंबर
यतिनो ज मोक्ष छे के तापसनोपंचाग्नि आदि तप करे छे तेमनो
पण छे? अथवा दिगम्बरनो ज मोक्ष छे के श्वेताम्बरनो पण छे?
अथवा केवली कवलाहार करे छे के नथी करता? अथवा स्त्रीनो मोक्ष
छे के नहि? अथवा जिनदेवे वस्तुने अनेकान्त कही छे ते सत्य छे
के असत्य? आवी आशंका न करवी ते निःशंकित अंग छे.
दयभावो वि य धम्मो हिंसाभावो ण भण्णदे धम्मो
इदि संदेहाभावो णिस्संका णिम्मला होदि ।।४१५।।
दयाभावः अपि च धर्मः हिंसाभावः न भण्यते धर्मः
इति सन्देहाभावः निःशंका निर्मला भवति ।।४१५।।
अर्थःनिश्चयथी दयाभाव ज धर्म छे पण हिंसाभावने धर्म
कही शकाय नहि आवो निश्चय थतां संदेहनो अभाव थाय छे, ते ज
निर्मल निःशंकितगुण छे.
भावार्थःअन्यमतीए मानेल जे विपरीत देव-धर्म-गुरुनो वा
तत्त्वना स्वरूपनो सर्वथा निषेध करी जिनमतमां कहेलुं श्रद्धान करवुं
ते निःशंकितगुण छे. ज्यां सुधी शंका रहे त्यां सुधी श्रद्धान निर्मळ
थाय नहि.
हवे निःकांक्षितगुण कहे छेः
जो सग्गसुहणिमित्तं धम्मं णायरदि दूसहतवेहिं
मोक्खं समीहमाणो णिक्कंक्खा जायदे तस्स ।।४१६।।
धर्मानुप्रेक्षा ]
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