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करी स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा नामना ग्रंथनी देशभाषामय वचनिका करीए छीए; त्यां संस्कृत टीका अनुसार मारी बुद्धि प्रमाणे गाथानो संक्षेपमां अर्थ लखीश; तेमां कोई ठेकाणे भूल होय तो विशेष बुद्धिमान सुधारी लेशो*.
श्रीमान् स्वामी कार्त्तिकेयाचार्य, पोतानां ज्ञान-वैराग्यनी वृद्धि थवी, नवीन श्रोताजनोने ज्ञान-वैराग्य ऊपजवां तथा विशुद्धता थवाथी पापकर्मनी निर्जरा, पुण्यनुं उपार्जन, शिष्टाचारनुं पालन अने निर्विध्नपणे ग्रंथनी समाप्ति इत्यादि अनेक भला फळनी इच्छापूर्वक पोताना इष्टदेवने नमस्काररूप मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करी प्रथम गाथासूत्र कहे छेः —
अर्थः — त्रण भुवनना तिलक अने त्रण भुवनना इन्द्रोथी पूज्य एवा देवने नमस्कार करी हुं भव्यजीवोने आनंद उपजाववावाळी अनुप्रेक्षा कहीश.
भावार्थः — अहीं ‘देव’ एवी सामान्य संज्ञा छे. त्यां क्रीडा, विजिगीषा, द्युति, स्तुति, मोद, गति, कांति आदि क्रिया करे तेने देव कहेवामां आवे छे. त्यां सामान्यपणे तो चार प्रकारना देव वा कल्पित देवोने पण (देव) गणवामां आवे छे. तेमनाथी (जिनदेवने) भिन्न दर्शाववा माटे अहीं ‘त्रिभुवनतिलकं’ एवुं विशेषण आप्युं छे. तेनाथी अन्य देवनो व्यवच्छेद (निराकरण – खंडन) थयो. *अहीं भाषानुवादक स्वर्गीय पं. जयचंद्रजीए समस्त ग्रंथनी संक्षिप्त सूचनारूप पीठिका लखी छे, पण तेने अहीं नहि मूकतां आधुनिक प्रथानुसार अमे भूमिकामां (प्रस्तावनामां) लखी छे.