Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 418-419.

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भयलज्जालाहादो हिंसारंभो ण मण्णदे धम्मो
जो जिणवयणे लीणो अमूढदिट्ठी हवे सो हु ।।४१८।।
भयलज्जालाभात् हिंसारम्भः न मन्यते धर्मः
यः जिनवचने लीनः अमूढदृष्टिः भवेत् सः स्फु टम् ।।४१८।।
अर्थःजे भयथी, लज्जाथी तथा लाभथी पण हिंसाना
आरंभने धर्म न माने ते पुरुष अमूढद्रष्टिगुण संयुक्त छे. केवो छे ते?
जिनवचनमां लीन छे, भगवाने ‘अहिंसाने ज धर्म कह्यो छे’ एवी द्रढ
श्रद्धा युक्त छे.
भावार्थःअन्यमतीओ यज्ञादिक हिंसामां धर्म स्थापे छे तेने
राजाना भयथी, कोई व्यंतरना भयथी, लोकनी लजजाथी वा कोई
धनादिकना लोभथी इत्यादि अनेक कारणोथी पण धर्म न माने, परंतु
एवी श्रद्धा राखे के ‘धर्म तो भगवाने अहिंसाने ज कह्यो छे’ तेने
अमूढद्रष्टिगुण कहे छे. अहीं हिंसारंभ कहेवाथी हिंसाना प्ररूपक देव
-शास्त्र-गुरु आदिमां पण मूढद्रष्टिवान न थाय
एम समजवुं.
हवे उपगूहनगुण कहे छेः
जो परदोसं गोवदि णियसुकयं णो पयासदे लोए
भवियव्वभावणरओ उवगूहणकारओ सो हु ।।४१९।।
यः परदोषं गोपयति निजसुकृतं नो प्रकाशयते लोके
भवितव्यभावनारतः उपगूहनकारकः सः स्फु टम् ।।४१९।।
अर्थःजे सम्यग्द्रष्टि परना दोषने ढांकेगोपवे तथा पोताना
सुकृत अर्थात् पुण्यगुणो लोकमां प्रकाशे नहिकहेतो फरे नहि, पण
आवी भावनामां लीन रहे के ‘जे भवितव्य छे ते थाय छे तथा थशे’
ते उपगूहनगुणवाळो छे.
भावार्थः‘जे कर्मनो उदय छे ते अनुसार लोकमां मारी प्रवृत्ति
छे अने जे थवा योग्य छे ते ज थाय छे’ एवी भावना सम्यग्द्रष्टिने
धर्मानुप्रेक्षा ]
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