Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 427-428.

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भावार्थःअनादि संसारथी मिथ्यात्व वडे भ्रमित एवो आ
प्राणी प्रथम तो धर्मने जाणतो ज नथी. वळी कोई काळलब्धिथी, गुरुना
संयोगथी अने ज्ञानावरणीना क्षयोपशमथी कदापि जाणे छे तो त्यां एने
आचरवो दुर्लभ छे.
हवे धर्मग्रहणनुं माहात्म्य द्रष्टान्तपूर्वक कहे छेः
जह जीवो कुणइ रइं पुत्तकलत्तेसु कामभोगेसु
तह जइ जिणिंदधम्मे तो लीलाए सुहं लहदि ।।४२७।।
यथा जीवः करोति रतिं पुत्रकलत्रेषु कामभोगेषु
तथा यदि जिनेन्द्रधर्मे तत् लीलया सुखं लभते ।।४२७।।
अर्थःजेम आ जीव पुत्रकलत्रमां तथा कामभोगमां रति
प्रीति करे छे तेम जो जिनेन्द्रना वीतरागधर्ममां करे तो लीलामात्र
अल्प काळमां ज सुखने प्राप्त थाय.
भावार्थःआ प्राणीने जेवी संसारमां तथा इन्द्रियविषयोमां
प्रीति छे, तेवी जो जिनेश्वरना दशलक्षणधर्मस्वरूप वीतरागधर्ममां प्रीति
थाय तो थोडा ज काळमां ते मोक्षने पामे.
हवे कहे छे के जीव लक्ष्मी इच्छे छे पण ते धर्म विना क्यांथी
होय?
लच्छिं वंछेइ णरो णेव सुधम्मेसु आयरं कुणइ
बीएण विणा कुत्थ वि किं दीसदि सस्सणिप्पत्ती ।।४२८।।
लक्ष्मीं वांछति नरः नैव सुधर्मेषु आदरं करोति
बीजेन विना कुत्र अपि किं दृश्यते सस्यनिष्पत्तिः ।।४२८।।
अर्थःआ जीव लक्ष्मीने इच्छे छे पण जिनेन्द्रना कहेला
मुनिश्रावकधर्ममां आदर-प्रीति करतो नथी, परंतु लक्ष्मीनुं कारण तो
धर्म छे एटले ए विना ते क्यांथी आवे? जेम बीज विना धान्यनी
उत्पत्ति क्यांय देखाय छे? नथी देखाती.
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[ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा