Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 429-431.

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भावार्थःजेम बीज विना धान्य न थाय तेम धर्म विना
संपदा पण न थाय ए प्रसिद्ध छे.
हवे धर्मात्माजीवोनी प्रवृत्ति कहे छेः
जो धम्मत्थो जीवो सो रिउवग्गे वि कुणदि खमभावं
ता परदव्वं वज्जइ जणणिसमं गणइ परदारं ।।४२९।।
यः धर्मस्थः जीवः सः रिपुवर्गे अपि करोति क्षमाभावम्
तावत् परद्रव्यं वर्जयति जननीसमं गणयति परदारान् ।।४२९।।
अर्थःजे जीव धर्ममां स्थिर छे ते वैरीओना समूह पर
पण क्षमाभाव करे छे, परद्रव्यने तजे छेअंगीकार करतो नथी तथा
परस्त्रीने माता, बहेन अने पुत्री समान गणे छे.
ता सव्वत्थ वि कित्ती ता सव्वत्थ वि हवेइ वीसासो
ता सव्वं पिय भासइ ता सुद्धं माणसं कुणइ ।।४३०।।
तावत् सर्वत्र अपि कीर्तिः तावत् सर्वत्र अपि भवति विश्वासः
तावत् सर्वं प्रियं भाषते तावत् शुद्धं मानसं करोति ।।४३०।।
अर्थःजे जीव धर्ममां स्थिर छे तेनी सर्व लोकमां कीर्ति
(प्रसंशा) थाय छे, सर्व लोक तेनो विश्वास करे छे; वळी ते पुरुष सर्वने
प्रिय वचन कहे छे जेथी कोई दुःखी थतो नथी, ते पुरुष पोताना अने
परना दिलने शुद्ध
उज्ज्वळ करे छे, कोईने तेना माटे कलुषता रहेती
नथी, तेम तेने पण कोईना माटे कलुषता रहेती नथी, टूंकमां धर्म सर्व
प्रकारथी सुखदायक छे.
हवे धर्मनुं माहात्म्य कहे छेः
उत्तमधम्मेण जुदो होदि तिरिक्खो वि उत्तमो देवो
चंडालो वि सुरिंदो उत्तमधम्मेण संभवदि ।।४३१।।
उत्तमधर्मेण युतः भवति तिर्यञ्चः अपि उत्तमः देवः
चण्डालः अपि सुरेन्द्रः उत्तमधर्मेण संभवति ।।४३१।।
धर्मानुप्रेक्षा ]
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