Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 437.

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इय पच्चक्खं पिच्छिय धम्माहम्माण विविहमाहप्पं
धम्मं आयरह सया पावं दूरेण परिहरइ ।।४३७।।
इति प्रत्यक्षं दृष्ट्वा धर्माधर्मयोः विविधमाहात्म्यम्
धर्मं आचरत सदा पापं दूरेण परिहरत ।।४३७।।
अर्थःहे प्राणी! आ प्रमाणे धर्म तथा अधर्मनुं अनेक
प्रकारनुं माहात्म्य प्रत्यक्ष जोईने तमे धर्मनुं आचरण करो तथा पापने
दूरथी ज छोडो!
भावार्थःदश प्रकारथी धर्मनुं स्वरूप कही आचार्यदेवे अधर्मनुं
फळ पण बताव्युं; अने हवे अहीं आ उपदेश आप्यो के, हे प्राणी!
धर्म
अधर्मनुं प्रत्यक्ष फळ लोकमां जोईने तमे धर्मने आचरो तथा पापने
छोडो! आचार्य महान निष्कारण उपकारी छे, पोताने कांई जोईतुं नथी,
मात्र निस्पृह थया थका जीवोना कल्याण अर्थे ज वारंवार कही
प्राणीओने जगाडे छे; एवा श्रीगुरु वंदन
पूजन योग्य छे. ए प्रमाणे
यतिधर्मनुं व्याख्यान कर्युं.
(दोहरो)
मुनिश्रावकना भेदथी, धर्म बे परकार,
तेने सुणी चिंतवो सतत, ग्रही पामो भवपार.
इति धर्मानुप्रेक्षा समाप्त.
२५० ]
[ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा