Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 440-442.

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भावार्थःइन्द्रियोने जीतवी ते उपवास छे; एटला माटे
भोजन करता होवा छतां पण यतिपुरुष उपवासी ज छे, कारण के
तेओ इन्द्रियोने वश करी प्रवर्ते छे.
जो मणइंदियविजई इहभवपरलोयसोक्खणिरवेक्खो
अप्पाणे वि य णिवसइ सज्झायपरायणो होदि ।।४४०।।
कम्माण णिज्जरट्ठं आहारं परिहरेइ लीलाए
एगदिणादिपमाणं तस्स तवं अणसणं होदि ।।४४१।।
यः मनःइन्द्रियविजयी इहभवपरलोकसौख्यनिरपेक्षः
आत्मनि एव निवसति स्वाध्यायपरायणः भवति ।।४४०।।
कर्मणां निर्जरार्थं आहारं परिहरति लीलया
एकदिनादिप्रमाणं तस्य तपः अनशनं भवति ।।४४१।।
अर्थःजे मन अने इन्द्रियोनो जीतवावाळो छे, आ भव
परभवना विषयसुखोमां अपेक्षारहित छे अर्थात् वांच्छा करतो नथी,
पोताना आत्मस्वरूपमां ज रहे छे वा स्वाध्यायमां तत्पर छे, तथा
कर्मनिर्जरा अर्थे क्रीडा एटले लीलामात्र क्लेशरहित हर्षसहित एक दिवस
आदिनी मर्यादापूर्वक जे आहारने छोडे छे तेने अनशनतप होय छे.
भावार्थःउपवासनो एवो अर्थ छे केइन्द्रिय तथा मन
विषयोमां प्रवृत्तिरहित थई आत्मामां रहे ते उपवास छे. आलोक
परलोक संबंधी विषयोनी वांच्छा न करवी ते इन्द्रियजय छे तथा
आत्मस्वरूपमां लीन रहेवुं वा शास्त्रना अभ्यासस्वाध्यायमां मन
लगाववुं ए उपवासमां प्रधान छे; वळी जेम क्लेश न ऊपजे एवी
रीते क्रीडामात्रपणे एक दिवस आदिनी मर्यादारूप आहारनो त्याग
करवो ते उपवास छे. ए प्रमाणे उपवास नामनुं अनशनतप थाय छे.
उववासं कुव्वाणो आरंभं जो करेदि मोहादो
तस्स किलेसो अवरं कम्माणं णेव णिज्जरणं ।।४४२।।
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[ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा