Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 446.

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भावार्थःभोजननी आशानो निरास करवा सारुं आ तप
करवामां आवे छे, कारण के संकल्प अनुसार विधि मळी जवी ए
दैवयोग छे अने एवुं महान कठण तप महामुनि करे छे.
हवे रसपरित्यागतप कहे छेः
संसारदुक्खतट्ठो विससमविसयं विचिंतमाणो जो
णीरसभोज्जं भुंजइ रसचाओ तस्स सुविसुद्धो ।।४४६।।
संसारदुःखत्रस्तः विषसमविषयं विचिन्तयन् यः
नीरसभोज्यं भुंक्ते रसत्यागः तस्य सुविशुद्धः ।।४४६।।
अर्थःजे मुनि संसारदुःखथी भयभीत थई आ प्रमाणे विचारे
छे केइन्द्रियोना विषयो विष जेवा छे, विष खातां तो एक वार मरण
थाय छे पण विषयरूप विषथी घणां जन्म-मरण थाय छे. एम विचारी
जे नीरसभोजन करे छे तेने रसपरित्यागतप निर्मळ थाय छे.
भवार्थरस छ प्रकारना छेघी, तेल, दहीं, मीठाई, लवण
अने दूध एवो तथा खाटो, खारो, मीठो, कडवो, तीखो अने कषायेलो
ए पण रस छे.
तेनो भावनानुसार त्याग करवो अर्थात् कोई एक
ज रस छोडे, बे रस छोडे वा बधाय रस छोडे. ए प्रमाणे
रसपरित्यागतप थाय छे.
प्रश्नःकोई रसत्यागने जाणतो न होय अने मनमां ज त्याग
करे तो ए प्रमाणे ज वृत्तिपरिसंख्यान पण छे तो पछी तेमां अने
आमां तफावत शो?
समाधानःवृत्तिपरिसंख्यानमां तो अनेक प्रकारना त्यागनी संख्या
छे अने आमां रसनो ज त्याग छे एटली विशेषता छे. वळी ए पण
द्वादश तप ][ २५५
खीरदधिसप्पितेलं गुडलवणाणं च जं परिच्चयणं
तित्तकडुकसायंबिलं मधुररसाणं च जं चयणं ।।
मूलाचारपंचाचाराधिकार, गा. १५५