Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 2-3.

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४ ]
[ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा
अद्ध्रुव असरण भणिया संसारामेगमण्णमसुइत्तं
आसव-संवरणामा णिज्जर-लोयाणुपेहाओ ।।।।
इय जाणिऊण भावह दुल्लह-धम्माणुभावणा णिच्चं
मणवयणकायसुद्धी एदा उद्देसदो भणिया ।।।। युग्मम्
अध्रुव अशरणं भणिताः संसारमेकमन्यमअशुचित्वम्
आस्रवसंवरनामा निर्जरालोकानुप्रेक्षाः ।।
इति ज्ञात्वा भावयत दुर्लभधर्मानुभावनाः नित्यम्
मनोवचनकायशुद्धया एताः उद्देशतः भणिताः ।।
अर्थःहे भव्यात्मन्? आटलां जे अनुप्रेक्षानां नाम जिनदेव
कहे छे. तेने (सम्यक् प्रकारे) जाणीने मन-वचन-काय शुद्ध करी आगळ
कहीशुं ते प्रमाणे तमे निरंतर भावो (चिंतवो). ते (नाम) क्यां छे?
अध्रुव, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर,
निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ अने धर्म
ए बार छे.
भावार्थःए बार भावनानां नाम कह्यां, तेनुं विशेष अर्थरूप
कथन तो आगळ यथास्थाने थशे ज; वळी ए नाम सार्थक छे. तेनो
अर्थ शो? अध्रुव तो अनित्यने कहीए छीए, जेमां शरणपणुं नथी ते
अशरण छे, परिभ्रमणने संसार कहीए छीए, ज्यां बीजुं कोई नथी
ते एकत्व छे, ज्यां सर्वथी जुदापणुं छे ते अन्यत्व छे, मलिनताने
अशुचित्व कहीए छीए, कर्मनुं आववुं ते आस्रव छे, कर्मास्रव रोकवो
ते संवर छे, कर्मनुं खरवुं ते निर्जरा छे, जेमां छ द्रव्योनो समुदाय छे
ते लोक छे, अति कठणताथी प्राप्त करीए ते दुर्लभ (बोधिदुर्लभ) छे
अने संसारथी जीवोनो उद्धार करे ते वस्तुस्वरूपादिक धर्म छे; ए प्रमाणे
तेनो अर्थ छे. हवे प्रथम अध्रुवानुप्रेक्षा कहे छेः
पाठांतरः दस दो य भणिया हु।