[ ५ ]
१. अधा्रुवानुप्रेक्षा
जं किंचि वि उप्पप्णं तस्स विणासो हवेइ णियमेण ।
परिणामसरूवेण वि ण य किंचि वि सासयं अत्थि ।।४।।
यत्किंचिदपि उत्पन्नं तस्य विनाशो भवति नियमेन ।
परिणामस्वरूपेणापि न च किंचिदपि शाश्वतमस्ति ।।४।।
अर्थः — जे कांई उत्पन्न थयुं तेनो नियमथी नाश थाय छे
अर्थात् परिणामस्वरूपथी तो कोई पण (वस्तु) शाश्वत नथी.
भावार्थः — सर्व वस्तु सामान्य-विशेषस्वरूप छे; त्यां सामान्य तो
द्रव्यने कहेवामां आवे छे तथा विशेष, गुण-पर्यायने कहेवामां आवे छे.
हवे द्रव्यथी तो वस्तु नित्य ज छे, गुण पण नित्य ज छे; अने पर्याय
छे ते अनित्य छे, तेने परिणाम पण कहेवामां आवे छे. आ जीव
पर्यायबुद्धिवाळो होवाथी पर्यायने ऊपजती-विणसती देखीने हर्ष-शोक करे
छे तथा तेने नित्य राखवा इच्छे छे; अने ए अज्ञान वडे ते व्याकुळ थाय
छे. तेथी तेणे आ भावना (अनुप्रेक्षा) चिंतववी योग्य छेः —
हुं द्रव्यथी शाश्वत आत्मद्रव्य छुं, आ ऊपजे छे – विणसे छे ते
पर्यायनो स्वभाव छे; तेमां हर्ष-विषाद शो? मनुष्यपणुं छे ते जीव अने
पुद्गलना संयोगजनित पर्याय छे अने धन-धान्यादिक छे ते पुद्गलना
परमाणुओनो स्कंधपर्याय छे, एटले तेनुं मळवुं – विखरावुं नियमथी
अवश्य छे, छतां तेमां स्थिरतानी बुद्धि करे छे ए ज मोहजनित भाव
छे. माटे वस्तुस्वरूप जाणी तेमां हर्ष-विषादादिरूप न थवुं. आगळ तेने
ज विशेषताथी कहे छेः —
जम्मं मरणेण समं संपज्जइ जोव्वणं जरासहियं ।
लच्छी विणाससहिया इय सव्वं भंगुरं मुणह ।।५।।