अर्थः — जे महामुनि पूजाआदिमां तो निरपेक्ष छे अर्थात्
पोतानां पूजा – माहात्म्य आदिने इच्छता नथी, संसार – देहभोगथी
विरक्त छे, स्वाध्याय ध्यानादि अंतरंगतपमां प्रवीण छे अर्थात् ध्यान
– अध्ययननो निरंतर अभ्यास राखे छे, उपशमशील अर्थात्
मंदकषायरूप शांतपरिणाम ज छे स्वभाव जेनो तथा जे महापराक्रमी
अने क्षमादि परिणाम युक्त छे एवा महामुनि मसाणभूमिमां,
गहनवनमां, ज्यां लोकनी आव – जाव न होय एवा निर्जनस्थानमां,
महा भयानक गहन वनमां तथा अन्य पण एवा एकान्तस्थानमां रहे
छे तेने निश्चयथी आ विविक्तशैयासनतप होय छे.
भावार्थः — महामुनि विविक्तशैयासनतप करे छे. त्यां एवा
एकान्तस्थानमां तेओ सूवे – बेसे छे के ज्यां चित्तमां क्षोभ करवावाळा
कोई पण पदार्थो न होय, एवां सूनां घर, गिरिगुफा, वृक्षनां कोतर,
गृहस्थोए पोते बनावेला उद्यान – वस्तिकादिक, देवमंदिर तथा
मसाणभूमि इत्यादि एकान्तस्थान होय त्यां ध्यान-अध्ययन करे छे,
कारण के तेओ देहथी तो निर्ममत्व छे, विषयोथी विरक्त छे अने
पोताना आत्मस्वरूपमां अनुरक्त छे. एवा मुनि विविक्तशैयासनतप
संयुक्त छे.
हवे कायक्लेशतप कहे छेः —
दुस्सहउवसग्गजई आतावणसीयवायखिण्णो वि ।
जो ण वि खेदं गच्छदि कायकिलेसो तवो तस्स ।।४५०।।
दुस्सहोपसर्गजयी आतापनशीतवातखिन्नः अपि ।
यः न अपि खेदं गच्छति कायक्लेशं तपः तस्य ।।४५०।।
अर्थः — जे मुनि दुस्सह उपसर्गने जीतवावाळा होय, आताप
– शीत – वातथी पीडित थवा छतां पण खेदने प्राप्त न थता होय, तथा
चित्तमां क्षोभ – क्लेश न ऊपजतो होय ते मुनिने कायक्लेश नामनुं तप
होय छे.
द्वादश तप ][ २५७