Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 450.

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अर्थःजे महामुनि पूजाआदिमां तो निरपेक्ष छे अर्थात्
पोतानां पूजामाहात्म्य आदिने इच्छता नथी, संसारदेहभोगथी
विरक्त छे, स्वाध्याय ध्यानादि अंतरंगतपमां प्रवीण छे अर्थात् ध्यान
अध्ययननो निरंतर अभ्यास राखे छे, उपशमशील अर्थात्
मंदकषायरूप शांतपरिणाम ज छे स्वभाव जेनो तथा जे महापराक्रमी
अने क्षमादि परिणाम युक्त छे एवा महामुनि मसाणभूमिमां,
गहनवनमां, ज्यां लोकनी आव
जाव न होय एवा निर्जनस्थानमां,
महा भयानक गहन वनमां तथा अन्य पण एवा एकान्तस्थानमां रहे
छे तेने निश्चयथी आ विविक्तशैयासनतप होय छे.
भावार्थःमहामुनि विविक्तशैयासनतप करे छे. त्यां एवा
एकान्तस्थानमां तेओ सूवेबेसे छे के ज्यां चित्तमां क्षोभ करवावाळा
कोई पण पदार्थो न होय, एवां सूनां घर, गिरिगुफा, वृक्षनां कोतर,
गृहस्थोए पोते बनावेला उद्यान
वस्तिकादिक, देवमंदिर तथा
मसाणभूमि इत्यादि एकान्तस्थान होय त्यां ध्यान-अध्ययन करे छे,
कारण के तेओ देहथी तो निर्ममत्व छे, विषयोथी विरक्त छे अने
पोताना आत्मस्वरूपमां अनुरक्त छे. एवा मुनि विविक्तशैयासनतप
संयुक्त छे.
हवे कायक्लेशतप कहे छेः
दुस्सहउवसग्गजई आतावणसीयवायखिण्णो वि
जो ण वि खेदं गच्छदि कायकिलेसो तवो तस्स ।।४५०।।
दुस्सहोपसर्गजयी आतापनशीतवातखिन्नः अपि
यः न अपि खेदं गच्छति कायक्लेशं तपः तस्य ।।४५०।।
अर्थःजे मुनि दुस्सह उपसर्गने जीतवावाळा होय, आताप
शीतवातथी पीडित थवा छतां पण खेदने प्राप्त न थता होय, तथा
चित्तमां क्षोभक्लेश न ऊपजतो होय ते मुनिने कायक्लेश नामनुं तप
होय छे.
द्वादश तप ][ २५७