भावार्थः — ग्रीष्मकाळमां पर्वतना शिखर आदि उपर के ज्यां
सूर्यकिरणोनो अत्यंत आताप थई रह्यो छे अने नीचे भूमिशिलादिक
पण तप्तायमान छे त्यां महामुनि आतापनयोग धारण करे छे,
शीतकाळमां नदी आदिना किनारे खुल्ला मेदानमां ज्यां अति ठंडी
पडवाथी वृक्ष पण बळी जाय त्यां उभा रहे छे, तथा चोमासामां वर्षा
वरसती होय, प्रचंड पवन चालतो होय अने डांस – मच्छर चटका भरता
होय एवा समयमां वृक्षनी नीचे योग धारण करे छे; तथा अनेक विकट
आसन करे छे. ए प्रमाणे कायक्लेशनां अनेक कारणो मेळवे छे छतां
साम्यभावथी डगता नथी, अनेक प्रकारना उपसर्गोने जीतवावाळा छे
छतां चित्तमां जेमने खेद ऊपजतो नथी, ऊलटा पोताना स्वरूपध्यानमां
निमग्न रहे छे, तेमने (एवा मुनिने) कायक्लेशतप होय छे. जेने काया
तथा इन्द्रियोथी ममत्व होय छे तेने चित्तमां क्षोभ थाय छे, परंतु आ
मुनि तो ए बधायथी निस्पृह वर्ते छे, तेमने शानो खेद होय? ए
प्रमाणे छ प्रकारना बाह्य तपोनुं निरूपण कर्युं.
हवे छ प्रकारनां अंतरंग तपोनुं व्याख्यान करे छे. त्यां प्रथम
प्रायश्चित्त नामनुं तप कहे छे.
दोसं ण करेदि सयं अण्णं पि ण कारएदि जो तिविहं ।
कुव्वाणं पि ण इच्छदि तस्स विसोही परा होदि ।।४५१।।
दोषं न करोति स्वयं अन्यं अपि न कारयति यः त्रिविधम् ।
कुर्वाणं अपि न इच्छति तस्य विशुद्धिः परा भवति ।।४५१।।
अर्थः — जे मुनि मन-वचन-कायाथी पोते दोष करे नहि, बीजा
पासे दोष करावे नहि तथा कोई दोष करतो होय तेने इष्ट – भलो जाणे
नहि तेने उत्कृष्ट विशुद्धता होय छे.
भावार्थः — अहीं ‘विशुद्धि’ नाम प्रायश्चित्तनुं छे. ‘प्रायः’
शब्दथी तो प्रकृष्ट चारित्रनुं ग्रहण छे अर्थात् एवुं चारित्र जेने होय
तेने ‘प्रायः’ कहे छे. अथवा साधुलोकनुं चित्त जे कार्यमां होय तेने
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[ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा