Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 452.

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प्रायश्चित्त कहे छे, अथवा आत्मानी विशुद्धता करे ते प्रायश्चित्त छे. वळी
(प्रायश्चित्त शब्दनो) बीजो अर्थ एवो पण छे के
‘प्रायः’ नाम
अपराधनुं छे, तेने ‘चित्त’ एटले तेनी शुद्धि करवी तेने प्रायश्चित्त कहीए
छीए. मतलब के पूर्वे करेला अपराधथी जे वडे शुद्धता थाय ते
प्रायश्चित छे. ए प्रमाणे जे मुनि मन-वचन-काय अने कृत-कारित
-अनुमोदनाथी दोष न लगावे तेने उत्कृष्ट विशुद्धता होय छे अने ए
ज प्रायश्चित्त
नामनुं तप छे.
अह कह वि पमादेण य दोसो जदि एदि तं पि पयडेदि
णिद्दोससाहुमूले दसदोसविवज्जिदो होदुं ।।४५२।।
अथ कथमपि प्रामदेन च दोषः यदि एति तं अपि प्रकटयति
निर्दोषसाधुमूले दशदोषविवर्जितः भवितुम् ।।४५२।।
अर्थःअथवा कोई प्रकारथी प्रमाद वडे पोताना चारित्रमां दोष
आवी गयो होय तो तेने निर्दोष साधुआचार्यनी निकट दश दोष
रहितपणे प्रगट करेआलोचन करे.
भावार्थःप्रमादथी पोताना चारित्रमां दोष लाग्यो होय तो
आचार्य पासे जई दश दोष रहित आलोचना करे. पांच इन्द्रिय, चार
कषाय, चार विकथा, एक निद्रा अने एक स्नेह ए पांचे प्रमाद छे
तेना पंदर भेद छे
(विशेष) भंगोनी अपेक्षाए तेना घणा (३७५००)
भेद छे, तेमनाथी दोष लागे छे.
द्वादश तप ][ २५९
यतिना आचारमां दश प्रकारनुं प्रायश्चित्त कह्युं छे यथाः
आलोयणपडिकमणं उभय विवेगो तहा विउस्सग्गो
तवछेदो मूलं पि य परिहरो चेव सद्दहणं ।।
मूलाचारपंचाचाराधिकार गा. १६५
विकहा तहा कसाया इंदियणिद्दा तहेव पणओ य
चदु चदु पणमेगेगं होंति पमादा हु पण्णरस ।।
गो. जी. गा. ३४