Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 461-462.

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अर्थःजे मुनि शमदमभावरूप पोताना आत्मस्वरूपमां
शुद्धोपयोगथी युक्त थईने प्रवर्ते छे तथा लोकव्यवहाररूप बाह्य
वैयावृत्यथी जे विरक्त छे तेमने उत्कृष्ट (निश्चय) वैयावृत्त्य होय छे
भावार्थःशम एटले राग-द्वेषरहित साम्यभाव तथा दम
एटले इन्द्रियोने विषयोमां न जवा देवी, एवा जे शमदमरूप पोताना
आत्मस्वरूपमां जे मुनि तल्लीन होय छे, तेमने लोकव्यवहाररूप बाह्य-
वैयावृत्त्य शा माटे होय? तेमने तो निश्चयवैयावृत्य ज होय छे.
शुद्धोपयोगी मुनिजनोनी आ रीत छे.
हवे छ गाथाओमां स्वाध्यायतपने कहे छेः
परतत्तीणिरवेक्खो दुट्ठवियप्पाण णासणसमत्थो
तच्चविणिच्छयहेदू सज्झाओ झाणसिद्धियरो ।।४६१।।
परतातिनिरपेक्षः दुष्टविकल्पानां नाशनसमर्थः
तत्त्वविनिश्चयहेतुः स्वाध्यायः ध्यानसिद्धिकरः ।।४६१।।
अर्थःजे मुनि परनिन्दामां निरपेक्ष छेवांच्छारहित छे तथा
मनना दुष्टखोटा विकल्पोनो नाश करवामां समर्थ छे तेमने तत्त्वनो
निश्चय करवाना कारणरूप तथा ध्याननी सिद्धि करवावाळुं स्वाध्याय
नामनुं तप होय छे.
भावार्थःजे परनिंदा करवामां परिणाम राखे छे तथा मनमां
आर्त्तरौद्रध्यानरूप खोटा विकल्पो चिंतवन कर्या करे, तेनाथी
शास्त्राभ्यासरूप स्वाध्याय शी रीते थाय? माटे ए सर्व छोडीने जे
स्वाध्याय करे तेने तत्त्वनो निश्चय तथा धर्म
शुक्लध्याननी सिद्धि थाय.
एवुं स्वाध्यायतप छे.
पूयादिसु णिरवेक्खो जिणसत्थं जो पढेइ भत्तीए
कम्ममलसोहणट्ठं सुयलाहो सुहयरो तस्स ।।४६२।।
पूजादिषु निरपेक्षः जिनशास्त्रं यः पठति भक्त्या
कर्ममलशोधनार्थं श्रुतलाभः सुखकरः तस्य ।।४६२।।
द्वादश तप ][ २६५