Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 477.

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अर्थःजे पुरुष परनी विषयसामग्री हरवाना स्वभाववाळो
होय, पोतानी विषयसामग्रीनी रक्षा करवामां प्रवीण होय तथा ए बंने
कार्योमां निरंतर चित्त तल्लीन राख्या करे ते पुरुषने ए पण रौद्रध्यान
ज छे.
भावार्थःपरसंपदा चोरवामां प्रवीण होय, चोरी करीने हर्ष
माने, पोतानी विषयसामग्री राखवानो अति प्रयत्न करे, तेनी रक्षा
करीने खुशी थाय; ए प्रमाणे आ (चौर्यानंद तथा विषयसंरक्षणानंद) बे
भेद पण रौद्रध्यानना छे. आ चारे भेदरूप रौद्रध्यान अति तीव्रकषायना
योगथी थाय छे
महा पापरूप छे तथा महा पापबंधना कारणरूप छे.
धर्मात्मा पुरुष एवा ध्यानने दूरथी ज छोडे छे. जेटलां कोई जगतने
उपद्रवनां कारणो छे तेटलां रौद्रध्यानयुक्त पुरुषथी बने छे. जे पाप करी
उलटो हर्ष माने
सुख माने तेने धर्मोपदेश पण लागतो नथी, ते तो
अचेत जेवो अति प्रमादी बनी पापमां ज मस्त रहे छे.
हवे धर्मध्यान कहे छेः
बिण्णि वि असुहे झाणे पावणिहाणे य दुक्खसंताणे
णच्चा दूरे वज्जह धम्मे पुण आयरं कुणह ।।४७७।।
द्वे अपि अशुभे ध्याने पापनिधाने च दुःखसन्ताने
ज्ञात्वा दूरे वर्जत धर्मे पुनः आदरं कुरुत ।।४७७।।
अर्थःहे भव्यप्राणी! आ बंने आर्तरौद्रध्यान अशुभ छे.
एनो, पापनां निधानरूप अने दुःखनां संतानरूप जाणी, दूरथी ज त्याग
करो अने धर्मध्यानमां आदर करो!
भावार्थःआर्त्तरौद्र बंने ध्यान अशुभ छे, पापथी भरेलां
छे अने एमां दुःखनी ज परंपरा चाल्या करे छे; माटे एनो त्याग
करी धर्मध्यान करवानो श्रीगुरुनो उपदेश छे.
हवे धर्मनुं स्वरूप कहे छेः
द्वादश तप ][ २७३