Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 13-14.

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१० ]
[ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा
प्रश्नःएने भोगववामां ते पाप उत्पन्न थाय छे ते पछी
एने भोगववानो उपदेश अहीं शा माटे आपो छो?
समाधानःमात्र संचय करी राखवामां प्रथम तो ममत्व घणुं
थाय छे तथा कोई कारणे ते विनाश पामी जाय ते वखते विषाद (खेद)
घणो थाय छे अने वळी आसक्तपणाथी निरंतर कषायभाव तीव्र-मलिन
रहे छे, परंतु तेने भोगववामां परिणाम उदार रहे छे
मलिन रहेता
नथी; वळी उदारतापूर्वक भोगसामग्रीमां खरचतां जगत पण जश करे
छे त्यां पण मन उज्ज्वल (प्रसन्न) रहे छे, कोई अन्य कारणे ते
विणसी जाय तो पण त्यां घणो विषाद थतो नथी इत्यादि, तेने
भोगववामां पण, गुण थाय छे; परंतु कृपणने तो तेनाथी कांई पण
गुण (फायदो) नथी, मात्र मननी मलिनतानुं ज ते कारण छे. वळी जे
कोई तेनो सर्वथा त्याग ज करे छे तो तेने कांई अहीं भोगववानो
उपदेश छे ज नहि.
जो पुण लच्छिं संचदि ण य भुंजदि णेय देदि पत्तेसु
सो अप्पाणं वंचदि मणुयत्तं णिप्फलं तस्स ।।१३।।
यः पुनः लक्ष्मीं संचिनोति न च भुङ्क्ते नैव ददाति पात्रेषु
सः आत्मानं वंचयति मनुजत्वं निष्फलं तस्य ।।१३।।
अर्थःपरंतु जे पुरुष लक्ष्मीनो मात्र संचय करे छे पण
पात्रोने अर्थे आपतो नथी, तथा भोगवतो पण नथी, ते तो मात्र
पोताना आत्माने ज ठगे छे; एवा पुरुषनुं मनुष्यपणुं निष्फळ छे
वृथा
छे.
भावार्थःजे पुरुषे, लक्ष्मी पामीने तेने मात्र संचय ज करीने
पण दान के भोगमां न खरची, तो तेणे मनुष्यपणुं पामीने शुं कर्युं?
मनुष्यपणुं निष्फळ ज गुमाव्युं, अने पोते ज ठगायो.
जो संचिऊण लच्छिं धरणियले संठवेदि अइदूरे
सो पुरिसो तं लच्छिं पाहाणसमाणियं कुणदि ।।१४।।