Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 22.

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१४ ]
[ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा
भावार्थःवस्तुनुं स्वरूप अन्यथा जणाववामां मद्यपान,
ज्वरादि रोग, नेत्रविकार अने अंधकार इत्यादि अनेक कारणो छे, परंतु
आ मोह तो ए सर्वथी पण बळवान छे, के जे प्रत्यक्ष वस्तुने विनाशीक
देखे छे छतां तेने नित्यरूप ज मनावे छे. तथा मिथ्यात्व, काम, क्रोध,
शोक इत्यादि बधा मोहना ज भेद छे. ए बधाय वस्तुस्वरूपमां
अन्यथा बुद्धि करावे छे.
हवे आ कथनने संकोचे छेः
चइऊण महामोहं विसए मुणिऊण भंगुरे सव्वे
णिव्विसयं कुणह मणं जेण सुहं उत्तमं लहए ।।२२।।
त्यक्त्वा महामोहं विषयान् ज्ञात्वा भंगुरान् सर्वान्
निर्विषयं कुरुत मनः येन सुखं उत्तमं लभध्वे ।।२२।।
अर्थःहे भव्यजीव! तुं समस्त विषयोने विनाशीक जाणीने
महामोहने छोडी तारा अंतःकरणने विषयोथी रहित कर, जेथी तुं उत्तम
सुखने प्राप्त थाय.
भावार्थःउपर कह्या प्रमाणे संसार, देह, भोग, लक्ष्मी
इत्यादि सर्व अस्थिर दर्शाव्यां. तेमने जाणी जे पोताना मनने विषयोथी
छोडावी, आ अस्थिरभावना भावशे ते भव्य जीव सिद्धपदना सुखने
प्राप्त थशे.
(दोहरो)
द्रव्यदृष्टितैं वस्तु थिर, पर्यय अथिर निहारि
उपजत विनशत देखिकैं हरष विषाद निवारि ।।
इति अध्रुवानुप्रेक्षा समाप्त.
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