Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 25-27.

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१६ ]
[ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा
जइ देवो वि य रक्खदि मंतो तंतो य खेत्तपालो य
मियमाणं पि मणुस्सं तो मणुया अक्खाया होंति ।।२५।।
यदि देवः अपि च रक्षति मन्त्रः तन्त्रः च क्षेत्रपालः च
म्रियमाणं अपि मनुष्यं तत् मनुजाः अक्षयाः भवन्ति ।।२५।।
अर्थःमरणने प्राप्त थता मनुष्यने जो कोई देव, मंत्र, तंत्र,
क्षेत्रपाल अने उपलक्षणथी लोको जेमने रक्षक माने छे ते बधाय
रक्षवावाळा होय तो मनुष्य अक्षय थई जाय अर्थात् कोई पण मरे
ज नहि.
भावार्थःलोको जीववाने माटे देवपूजा, मंत्र-तंत्र अने औषधी
आदि अनेक उपाय करे छे. परंतु निश्चयथी विचारीए तो कोई जीवता
(शाश्वत) देखाता नथी, छतां निरर्थक ज मोहथी विकल्प उपजावे छे.
हवे ए ज अर्थने फरीथी द्रढ करे छेः
अइबलिओ वि रउद्दो मरणविहीणो ण दीसदे को वि
रक्खिज्जंतो वि सया रक्खपयारेहिं विविहेहिं ।।२६।।
अतिबलिष्ट अपि रौद्रः मरणविहीनः न दृश्यते कः अपि
रक्षमाणः अपि सदा रक्षाप्रकारैः विविधैः ।।२६।।
अर्थः आ संसारमां अति बळवान, अति रौद्रभयानक
अने रक्षणना अनेक प्रकारोथी निरंतर रक्षण करवामां आवतो होवा
छतां पण मरण रहित कोई पण देखातो नथी.
भावार्थःगढ, कोट, सुभट अने शस्त्र आदि रक्षाना अनेक
प्रकारोथी उपाय भले करो परंतु मरणथी कोई बचतुं नथी अने सर्व
उपायो विफळ (निष्फळ) जाय छे.
हवे परमां शरण कल्पे तेना अज्ञानने दर्शावे छेः
एवं पेच्छंतो वि हु गहभूयपिसायजोइणीजक्खं
सरणं मण्णइ मूढो सुगाढमिच्छत्तभावादो ।।२७।।