Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 30-31.

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१८ ]
[ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा
अर्थःदेवोनो इन्द्र पण पोताने चवतो (मरतो) थको राखवाने
समर्थ होत तो सर्वोत्तम भोगो सहित जे स्वर्गनो वास तेने ते शा
माटे छोडत?
भावार्थःसर्व भोगोनुं स्थळ पोताना वश चालतुं होय तो तेने
कोण छोडे?
हवे परमार्थ (साचुं) शरण दर्शावे छेः
दंसणणाणचरित्तं सरणं सेवेह परमसद्धाए
अण्णं किं पि ण सरणं संसारे संसरंताणं ।।३०।।
दर्शनज्ञानचारित्रं शरणं सेवध्वं परमश्रद्धया
अन्यत् किं अपि न शरणं संसारे संसरताम् ।।३०।।
अर्थःहे भव्य! तुं परम श्रद्धापूर्वक दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप
(आत्माना) शरणने सेवन कर. आ संसारमां परिभ्रमण करता जीवोने
अन्य कोई पण शरण नथी.
भावार्थःसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र पोतानुं स्वरूप छे अने ए
ज परमार्थरूप (वास्तविकसाचुं) शरण छे, अन्य सर्व अशरण छे.
निश्चय श्रद्धापूर्वक ए ज शरणने पकडोएम अहीं उपदेश छे.
हवे ए ज वातने द्रढ करे छेः
अप्पा णं पि य सरणं खमादिभावेहिं परिणदो होदि
तिव्वकसायाविट्ठो अप्पाणं हणदि अप्पेण ।।३१।।
आत्मा ननु अपि च शरणं क्षमादिभावैः परिणतः भवति
तीव्रकषायाविष्टः आत्मानं हिनस्ति आत्मना ।।३१।।
अर्थःउत्तम क्षमादि स्वभावे परिणत आत्मा ज खरेखर
शरण छे; पण जे तीव्रकषाययुक्त थाय छे ते पोता वडे पोताने ज
हणे छे.