संसारानुप्रेक्षा ]
अर्थः — असुरकुमारदेवोथी उपजावेलां दुःख, (पोताना) शरीरथी ज उत्पन्न थयेलां दुःख, मनथी अने अनेक प्रकारनां क्षेत्रथी उत्पन्न थयेलां दुःख तथा परस्पर करेलां दुःख — ए प्रमाणे पांच प्रकारनां दुःख छे.
भावार्थः — त्रीजा नरक सुधी तो असुरकुमारदेवो मात्र कुतूहलथी जाय छे अने नारकीओने जोई तेमने परस्पर लडावे छे – अनेक प्रकारथी दुःखी करे छे; वळी ए नारकीओनां शरीर ज पापना उदयथी स्वयमेव अनेक रोगयुक्त, बूरां, घृणाकारी अने दुःखमय होय छे, तेमनां चित्त ज महाक्रूर अने दुःखरूप ज होय छे; नरकनुं क्षेत्र महाशीत, उष्ण, दुर्गंधादि अनेक उपद्रव सहित छे; तथा परस्पर वेरना संस्कारथी (आपस-आपसमां) छेदन, भेदन, मारण, ताडन अने कुंभीपाक वगेरे करे छे; त्यांनां दुःख उपमारहित छे.
हवे ए ज दुःखने विशेष (भेद) कहे छेः —
अर्थः — ज्यां शरीरने तलतल प्रमाण छेदवामां आवे छे, तेना तलतल जेटला शकल अर्थात् खंडने पण भेदवामां आवे छे, वज्राग्निमां पकाववामां आवे छे तथा परुना कुंडमां नाखवामां आवे छे.