Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 57-59.

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संसारानुप्रेक्षा ]

[ २९

जाय छे. अने किंकर होय ते राजा थई जाय छे.

सत्तू वि होदि मित्तो मित्तो वि य जायदे तहा सत्तू
कम्मविवागवसादो एसो संसारसब्भावो ।।५७।।
शत्रुः अपि भवति मित्रं मित्रं अपि च जायते तथा शत्रुः
कर्मविपाकवशात् एषः संसारस्वभावः ।।५७।।

अर्थःकर्मोदयवशे वैरी होय ते तो मित्र थई जाय छे तथा मित्र होय ते वैरी थई जाय छे. एवो ज संसारनो स्वभाव छे.

भावार्थःपुण्यकर्मना उदयथी वैरी पण मित्र थई जाय छे तथा पापकर्मना उदयथी मित्र पण शत्रु थई जाय छे.

हवे चार गाथामां देवगतिनां दुःखोनुं स्वरूप कहे छेः

देवगतिनां दुःखो
अह कह वि हवदि देवो तस्स वि जाएदि माणसं दुक्खं
दट्ठूण महड्ढीणं देवाणं रिद्धिसम्पत्ती ।।५८।।
अथ कथमपि भवति देवः तस्य अपि जायते मानसं दुःखम्
दृष्टवा महर्द्धीनां देवानां ऋद्धिसम्प्राप्तिम् ।।५८।।

अर्थःअथवा (कदाचित्) महान कष्टथी देवपर्याय पण पामे त्यां तेने पण महान ॠद्धिधारक देवोनी ॠद्धिसंपदा जोईने मानसिक दुःख उत्पन्न थाय छे.

इट्ठविओगे दुक्खं होदि महड्ढीण विसयतण्हादो
विसयवसादो सुक्खं जेसिं तेसिं कुदो तित्ती ।।५९।।
इष्टवियोगे दुःख भवति महर्द्धीनां विषयतृष्णातः
विषयवशात् सुखं येषां तेषां कुतः तृप्तिः ।।५९।।

अर्थःमहर्द्धिकदेवोने पण इष्ट ॠद्धि अने देवांगनादिनो वियोग थतां दुःख थाय छे. जेमने विषयाधीन सुख छे तेमने तृप्ति क्यांथी थाय? तृष्णा वधती ज रहे छे.