Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 63-65.

< Previous Page   Next Page >


Page 31 of 297
PDF/HTML Page 55 of 321

 

संसारानुप्रेक्षा ]

[ ३१
एवं सुष्ठु असारे संसारे दुःखसागरे घोरे
किं कुत्र अपि अस्ति सुखं विचार्यमाणं सुनिश्चयतः ।।६२।।

अर्थःए प्रमाणे सर्व प्रकारे असार एवा आ दुःखसागररूप भयानक संसारमां निश्चयथी विचार करवामां आवे तो शुं कोई ठेकाणे किंचित् पण सुख छे? अपितु नथी ज.

भावार्थःचारगतिरूप संसार छे. अने चारे गतिओ दुःखरूप ज छे, तो तेमां सुख क्यां समजवुं?

हवे कहे छे के आ जीव पर्यायबुद्धिवाळो छे. तेथी ते जे योनिमां ऊपजे छे त्यां ज सुख मानी ले छेः

दुक्कियकम्मवसादो राया वि य असुइकीड़ओ होदि
तत्थेव य कुणइ रइं पेक्खह मोहस्स माहप्पं ।।६३।।
दुष्कृतकर्मवशात् राजा अपि च अशुचिकीटकः भवति
तत्र एव च करोति रतिं प्रेक्षध्वं मोहस्य माहात्म्यम् ।।६३।।

अर्थःहे प्राणी! तमे जुओ तो खरा आ मोहनुं माहात्म्य! के पापवश मोटो राजा पण मरीने विष्टाना कीडामां जई उत्पन्न थाय छे अने त्यां ज ते रति माने छेक्रीडा करे छे.

हवे कहे छे केआ प्राणीनो एक ज भवमां अनेक संबंध थाय छे.

पुत्तो वि भाउ जाओ सो वि य भाओ वि देवरो होदि
माया होदि सवत्ती जणणो वि य होदि भत्तारो ।।६४।।
एयम्मि भवे एदे संबंधा होंति एय-जीवस्स
अण्णभवे किं भण्णइ जीवाणं धम्मरहिदाणं ।।६५।। युगलम्
पुत्रः अपि भ्राता जातः सः अपि च भ्राता अपि देवरः भवति
माता भवति सपत्नी जनकः अपि च भवति भर्ता ।।६४।।