Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). 6. Ashuchitvanupreksha Gatha: 83-84.

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[ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा

भावार्थःजे देहादि परद्रव्योने न्यारां जाणी पोताना स्वरूपनुं सेवन करे छे तेने आ अन्यत्वभावना कार्यकारी छे.

(दोहरो)
निज आतमथी भिन्न पर, जाणे जे नर दक्ष;
निजमां रमे वमे अपर, ते शिव लखे प्रत्यक्ष.
इति अन्यत्वानुप्रेक्षा समाप्त.
६. अशुचित्वानुप्रेक्षा
सयलकुहियाण पिंडं किमिकुलकलियं अउव्वदुग्गंधं
मलमुत्ताण य गेहं देहं जाणेहि असुइमयं ।।८३।।
सकलकुथितानां पिण्डं कृमिकुलकलितं अपूर्वदुर्गन्धं
मलमूत्राणां च गृहं देहं जानीहि अशुचिमयम् ।।८३।।

अर्थःहे भव्य! तुं आ देहने अपवित्रमय जाण! केवो छे ए देह? सघळी कुत्सित् अर्थात् निंदनीय वस्तुओनो पिंडसमुदाय छे. वळी ते केवो छे? कृमि अर्थात् उदरना जीव जे कीडा तथा निगोदिया जीवोथी भरेलो छे, अत्यंत दुर्गन्धमय छे तथा मळ-मूत्रनुं घर छे.

भावार्थःआ देहने सर्व अपवित्र वस्तुओना समूहरूप जाण.

हवे कहे छे केआ देह अन्य सुगंधित वस्तुओने पण पोताना संयोगथी दुर्गन्धमय करे छे.

सुट्ठु पवित्तं दव्वं सरससुगंधं मणोहरं जं पि
देहणिहित्तं जायदि घिणावणं सुट्ठु दुग्गंधं ।।८४।।