Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 85-86.

< Previous Page   Next Page >


Page 47 of 297
PDF/HTML Page 71 of 321

 

अशुचित्वानुप्रेक्षा ]

[ ४७
सुष्ठु पवित्रं द्रव्यं सरससुगन्धं मनोहरं यदपि
देहनिक्षिप्तं जायते घृणास्पदं सुष्ठु दुर्गन्धम् ।।८४।।

अर्थःरूडा, पवित्र, सुरस अने मनोहर सुगंधित द्रव्यो छे ते पण आ देहमां नाखतांनी साथे ज घृणास्पद अने अत्यंत दुर्गन्धमय बनी जाय छे.

भावार्थःआ देहने चंदन-कपूरादि लगावतां ते पण दुर्गन्धमय थई जाय छे, मिष्टान्नादि सुरस वस्तुओ खातां ते पण मलादिरूप परिणमी जाय छे तथा अन्य वस्तु पण आ देहना स्पर्शमात्रथी अस्पर्श्य थई जाय छे.

फरी आ देहने अशुचिरूप दर्शावे छेः

मणुयाणं असुइमयं विहिणा देहं विणिम्मियं जाण
तेसिं विरमणकज्जे ते पुण तत्थेव अणुरत्ता ।।८५।।
मनुजानां अशुचिमयं विधिना देहं विनिर्मितं जानीहि
तेषां विरमणकार्ये ते पुनः तत्र एव अनुरक्ताः ।।८५।।

अर्थःहे भव्य? आ मनुष्योनो देह, कर्मोए अशुचिमय बनाव्यो छे, त्यां आवी उत्प्रेक्षासंभावना जाण केए मनुष्योने वैराग्य उपजाववा माटे ज एवो रच्यो छे; छतां पण आ मनुष्य एवा देहमां पण अनुरागी थाय छे ए मोटुं अज्ञान छे.

वळी ए ज अर्थने द्रढ करे छेः

एवंविहं पु देहं पिच्छंता वि य कुणंति अणुरायं
सेवंति आयरेण य अलद्धपुव्वं ति मण्णंता ।।८६।।
एवंविधं अपि देहं पश्यन्तः अपि च कुर्वन्ति अनुरागम्
सेवन्ते आदरेण च अलब्धपूर्वं इति मन्यमानाः ।।८६।।

अर्थःपूर्वोक्त प्रकारे एवा अशुचि देहने प्रत्यक्ष देखवा छतां पण आ मनुष्य त्यां अनुराग करे छे, जाणे पूर्वे (आवो देह) कदी