Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 90.

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अर्थःमोहकर्मना उदयवशे आ जीवने जे परिणाम थाय छे
ते ज आस्रव छे, एम हे भव्य? तुं प्रगटपणे जाण! ते परिणाम
मिथ्यात्वादि अनेक प्रकारना छे.
भावार्थःकर्मबंधनुं कारण आस्रव छे. ते मिथ्यात्व, अविरति,
प्रमाद, कषाय अने योगएम पांच प्रकारना छे. तेमां स्थिति-
अनुभागरूप बंधना कारण तो मिथ्यात्वादि चार ज छे अने ते
मोहकर्मना उदयथी थाय छे; तथा योग छे ते तो समयमात्र बंधने करे
छे पण कांई स्थिति-अनुभागने करतो नथी, तेथी ते बंधना कारणमां
प्रधान (मुख्य) नथी.
हवे पुण्य-पापना भेदथी आस्रवने बे प्रकारनो कहे छेः
कम्मं पुण्णं पावं हेउं तेसिं च होंति सच्छिदरा
मंदक साया सच्छा तिव्वकसाया असच्छा हु ।।९०।।
कर्म पुण्यं पापं हेतवः तयोः च भवन्ति स्वच्छेतराः
मन्दकषायाः स्वच्छाः तीव्रकषायाः अस्वच्छाः स्फु टम् ।।९०।।
अर्थःकर्म छे ते पुण्य अने पाप एवा बे प्रकारनां छे. तेनुं
कारण पण बे प्रकारनुं छेः एक प्रशस्त अने बीजुं अप्रशस्त. त्यां
मंदकषायरूप परिणाम छे ते तो प्रशस्त एटले शुभ छे तथा
तीव्रकषायरूप परिणाम छे ते अप्रशस्त एटले अशुभ छे एम प्रगट
जाणो.
भावार्थःशातावेदनीय, शुभआयु, उच्चगोत्र अने शुभनाम
ए प्रकृतिओ तो पुण्य (शुभ) रूप छे तथा बाकीनां चार घातिकर्मो,
अशातावेदनीय, नरकायु, नीचगोत्र अने अशुभनाम ए बधी प्रकृतिओ
पापरूप छे. तेमना कारणरूप आस्रव पण बे प्रकारना छे. त्यां
मंदकषायरूप परिणाम छे ते तो पुण्यास्रव छे तथा तीव्रकषायरूप
परिणाम छे ते पापास्रव छे.
हवे मंद-तीव्र कषायनां प्रगट द्रष्टांत कहे छेः
५० ]
[ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा