Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 109.

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क्षपकः च क्षीणमोहः सयोगिनाथः तथा अयोगिनः
एते उपरि उपरि असंख्यगुणकर्मनिर्जरकाः ।।१०८।।
अर्थःप्रथमोपशमसम्यक्त्वनी उत्पत्ति वखते त्रण करणवर्ती
(अधःकरण-अपूर्वकरण-अनिवृत्तिकरण ए त्रण करणमां वर्तता)
विशुद्धपरिणाम सहित मिथ्याद्रष्टिने जे निर्जरा थाय छे, तेनाथी
असंयतसम्यग्द्रष्टिने असंख्यात गणी निर्जरा थाय छे. तेनाथी देशव्रती
श्रावकने असंख्यात गणी थाय छे अने तेनाथी महाव्रती मुनिजनोने
असंख्यात गणी थाय छे.
तेनाथी अनंतानुबंधीकषायनुं विसंयोजन करवावाळाने एटले तेने
अप्रत्याख्यानावरणादिरूपे परिणमावनारने असंख्यात गणी थाय छे,
तेनाथी दर्शनमोहनो क्षय करवावाळाने असंख्यात गणी थाय छे,
तेनाथी उपशमश्रेणीवाळा त्रण गुणस्थानवर्तीने असंख्यात गणी थाय छे
अने तेनाथी अगियारमा उपशांतमोह गुणस्थानवाळाने असंख्यात
गणी थाय छे.
तेनाथी क्षपकश्रेणीवाळा त्रण गुणस्थानमां असंख्यात गणी थाय
छे, तेनाथी बारमा क्षीणमोहगुणस्थानमां असंख्यात गणी थाय छे,
तेनाथी सयोगकेवलीने असंख्यात गणी थाय छे, तथा तेनाथी
अयोगकेवलीने असंख्यात गणी थाय छे. ए प्रमाणे उपर उपर
असंख्यात गुणाकाररूप निर्जरा छे तेथी तेने गुणश्रेणी निर्जरा कहीए
छीए.
हवे गुणाकार रहित अधिकरूप निर्जरा जेनाथी थाय छे ते अहीं
कहीए छीएः
जो विसहदि दुव्वयणं साहम्मियहीलणं च उवसग्गं
जीणिऊण कसायरिउं तस्स हवे णिज्जरा विउला ।।१०९।।
यः विषहते दुर्वचनं साधर्मिकहीलनं च उपसर्गम्
जित्वा कषायरिपुं तस्य भवेत् निर्जरा विपुला ।।१०९।।
निर्जरानुप्रेक्षा ]
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