Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 120-122.

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लोकानुप्रेक्षा ]

[ ७३
हवे त्रण लोकनी ऊंचाईना विभाग कहे छेः
मेरुस्स हिट्ठभाए सत्त वि रज्जू हवेइ अहलोओ
उड्ढम्हि उड्ढलोओ मेरुसमो मज्झिमो लोओ ।।१२०।।
मेरोः अधोभागे सप्त अपि रज्जवः भवति अधोलोकः
ऊर्ध्वे ऊ र्ध्वलोकः मेरुसमः मध्यमः लोकः ।।१२०।।

अर्थःमेरुना नीचेना भागमां सात राजु अधोलोक छे, उपर सात राजु ऊर्ध्वलोक छे अने वच्चे मेरु समान लाख योजननो मध्यलोक छे. ए प्रमाणे त्रण लोकनो विभाग जाणवो.

हवे ‘लोक’ शब्दनो अर्थ कहे छेः

दीसंति जत्थ अत्था जीवादीया स भण्णदे लोओ
तस्स सिहरम्मि सिद्धा अंतविहीणा विरायंते ।।१२१।।
दृश्यन्ते यत्र अर्थाः जीवादिकाः स भण्यते लोकः
तस्य शिखरे सिद्धाः अन्तविहीनाः विराजन्ते ।।१२१।।

अर्थःज्यां जीवादिक पदार्थ जोवामां आवे छे तेने लोक कहे छे; तेना शिखर उपर अनंत सिद्धो बिराजे छे.

भावार्थःव्याकरणमां दर्शनना अर्थमां ‘लुक्’ नामनो धातु छे; तेना आश्रयार्थमां अकार प्रत्ययथी ‘लोक’ शब्द नीपजे छे. तेथी जेमां जीवादिक द्रव्यो जोवामां आवे तेने ‘लोक’ कहेवामां आवे छे. तेना उपर अंत(भाग)मां कर्मरहित अने अनंत गुणसहित अविनाशी अनंत शुद्ध जीव बिराजे छे.

हवे, आ लोकमां जीवादिक छ द्रव्य छे तेनुं वर्णन करे छे. त्यां प्रथम ज जीवद्रव्य विषे कहे छेः

एइंदिएहिं भरिदो पंचपयारेहिं सव्वदो लोओ
तसणाडीए वि तसा ण बाहिरा होंति सव्वत्थ ।।१२२।।

‘वायरा’ एवो पण पाठ छे. तेनो एवो अर्थ छे के सर्व लोकमां पृथ्वीकायादिक

स्थूल तथा त्रस नथी.