Swami Kartikeyanupreksha-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 123-124.

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[ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा
एकेन्द्रियैः भृतः पंचप्रकारैः सर्वतः लोकः
त्रसनाडयां अपि त्रसा न बाह्याः भवन्ति सर्वत्र ।।१२२।।

अर्थःआ लोक पृथ्वी, अप, तेज, वायु अने वनस्पति ए पांच प्रकारनी कायाना धारक एवा जे एकेन्द्रिय जीवो तेनाथी सर्वत्र भरेलो छे; वळी त्रस जीवो त्रसनाडीमां ज छेबहार नथी.

भावार्थःसमान परिणामनी अपेक्षाए उपयोग लक्षणवान जीवद्रव्य सामान्यपणे एक छे तोपण वस्तु (जीवो) भिन्नप्रदेशपणाथी पोतपोताना स्वरूप सहित जुदी जुदी अनंत छे. तेमां जे एकेन्द्रिय छे ते तो सर्वलोकमां छे तथा बे इन्द्रिय, त्रण इन्द्रिय, चार इन्द्रिय अने पंचेन्द्रिय त्रस जीवो छे ते त्रसनाडीमां ज छे.

हवे बादर-सूक्ष्मादि भेद कहे छेः

पुण्णा वि अपुण्णा वि य थूला जीवा हवंति साहारा
छविहसुहुमा जीवा लोयायासे वि सव्वत्थ ।।१२३।।
पूर्णाः अपि अपूर्णाः अपि च स्थूलाः जीवाः भवन्ति साधाराः
षड्विधसूक्ष्माः जीवाः लोकाकाशे अपि सर्वत्र ।।१२३।।

अर्थःजे जीव आधार सहित छे ते तो स्थूळ एटले बादर छे, अने ते पर्याप्त छे तथा अपर्याप्त पण छे; तथा जे लोकाकाशमां सर्वत्र अन्य आधार रहित छे ते जीव सूक्ष्म छे. तेना छ प्रकार छे.

हवे बादर तथा सूक्ष्म कोण कोण छे ते कहे छेः

पुढवीजलग्गिवाऊ चत्तारि वि होंति बायरा सुहुमा
साहारणपत्तेया वणप्फ दी पंचमा दुविहा ।।१२४।।
पृथ्वीजलाग्निवायवः चत्वारः अपि भवन्ति बादराः सूक्ष्माः
साधारणप्रत्येकाः वनस्पतयः पंचमाः द्विविधाः ।।१२४।।