Tattvagyan Tarangini-Gujarati (Devanagari transliteration).

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९४ ][ तत्त्वज्ञान-तरंगिणी
अस्मिन् क्षेत्रेऽधुना संति विरला जैनपाक्षिकाः
सम्यक्त्वसहितास्तत्र तत्राणुव्रतधारिणः ।।१६।।
महाव्रतधरा धीराः संति चात्यंतदुर्लंभाः
तत्त्वातत्त्वविदस्तेषु चिद्रक्तोऽत्यंतदुर्लभः ।।१७।।
आ क्षेत्रे आजे छे कोइक पाक्षिक जैनो विरलाजी;
सद्द्रष्टि त्यां विरला, तेमां अणुव्रतधाारी विरलाजी. १६.
तेमां अति दुर्लभ तो महाव्रतधाारी धाीर विरकताजी;
दुर्लभ तत्त्वातत्त्व विज्ञानी, अति दुर्लभ चिद्रकताजी. १७.
अर्थ :आ क्षेत्रे हमणां जैनमार्ग सत्य छे एवा निश्चयपूर्वक
पक्ष करनार थोडा छे, तेमां सम्यक्त्व सहित थोडा छे, तेमां गृहस्थना
अणुव्रत धारण करनारा थोडा छे, तेना करतां पण महाव्रतने धारण
करनारा धीर अत्यंत दुर्लभ छे, तेओमां पण तत्त्व अने अतत्त्वने
जाणनार बहुश्रुत ज्ञानी दुर्लभ छे, तेओमां पण चिद्रूपमां रक्त अत्यंत
दुर्लभ छे. १६-१७.
तपस्विपात्रविद्वत्सु गुणिसद्गतिगामिषु
वंद्यस्तुत्येषु विज्ञेयः स एवोत्कृष्टतां गतः ।।१८।।
सर्व तपस्वी पात्र विबुधा के सद्गुणी सद्गतिगामीजी;
वंद्य स्तुत्य सर्वेमां जाणो श्रेÌ ए ज चिद्रामीजी. १८.
अर्थ :तपस्वी, पात्र अने विद्वानोमां, गुणवान अने
सद्गतिगामीओमां, वंदनीय अने स्तुत्य पुरुषोमां ते ज उत्कृष्टता पामेल
जाणवा. १८.
उत्सर्पिण्यवसर्पंणकालेऽनाद्यंतवर्जिते स्तोकाः
चिद्रक्ता व्रतयुक्ता भवंति केचित्कदाचिच्च ।।१९।।
उत्सर्पिणी अवसर्पिणी सर्वे काळ अनादि अनंताजी;
तेमां अल्प कोइ कदी थाता चिद्रूपरत व्रतवंताजी. १९.