Tattvagyan Tarangini-Gujarati (Devanagari transliteration).

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अध्याय-११ ][ ९५
अर्थ :अनादि अनंत एवा उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी
काळमां आत्मप्रेमी अने व्रत सहित कोई ज कोई काळमां ज थोडा थाय
छे. १९.
मिथ्यात्वादिगुणस्थानचतुष्के संभवंति न
शुद्धचिद्रूपके रक्ता व्रतिनोपि कदाचन ।।२०।।
पंचमादिगुणस्थानदशके तादृशोंऽगिनः
स्युरिति ज्ञानिना ज्ञेयं स्तोकजीवसमाश्रिते ।।२१।।
मिथ्यात्वादि प्रथम चार गुणस्थाने जे जे वर्तेजी;
त्यां न कदी ते चिद्रूप धयाने के व्रतमांही प्रवर्तेजी. २०.
पंचमथी गुणस्थान चतुर्दशमां व्रत धयान विराजेजी;
ज्ञानी जाणे अल्प जीवो तो ते गुणस्थाने राजेजी. २१.
अर्थ :शुद्ध चिद्रूपमां तल्लीन अने व्रतसंयमवाळा एवा जीवो
मिथ्यात्व आदि चार गुणस्थानमां कदी पण थवा संभवता नथी. २०.
थोडा जीव जेमां वर्ते छे एवा पांचमाथी चौदमा सुधीना दश
गुणस्थानमां तेवा जीवो होय छे, एम ज्ञानीओए जाणवा योग्य
छे. २१.
दृश्यंते गंधनादावनुजसुतसुताभीरुपित्रंविकासु
ग्रामे गेहे खभोगे नगनगरखगे वाहने राजकार्ये
आहार्येऽगे वनादौ व्यसनकृषिमुखेकूपवापीतडागे
रक्ताश्चप्रेषणादौ यशसि पशुगणे शुद्धचिद्रूपके न
।।२२।।
दिसे रकत घाणा ज्यां जगमां विषय वासना गंधोजी,
लघाु भ्राता सुत सुता वनिता मातपिता संबंधोजी;
ग्राम धााम ने गगन विहारे, पर्व पक्षी नगरेजी,
राजकार्य वन वाहनमां वळी खानपान के शरीरेजी;